आदि शंकराचार्य रचित चर्पट पंचारिका स्त्रोत–
आदि शंकराचार्य रचित चर्पट पंचारिका स्त्रोत ‘भज गोविन्द भज गोविन्द मूढ़ मते’ एक सुप्रसिद्ध कृति है, जो मूल रूप में देवभाषा संस्कृत में है । इस स्त्रोत में आदि शंकराचार्य ने मानव जीवन को नश्वर बतलाते हुुुये ईश्वर शरण मेें जाने की प्ररेणा दियेे हैं । इसी स्त्रोत का लावणी छंंद में भावपूर्ण अनुवाद किया गया है ।
चर्पट पंजारिका (हिन्दी में)-

चर्पट-लावणी
(चर्पट पंजारिका लावणी छंद में)
ध्रुव पद- हरि का सुमरन कर ले बंदे, नश्वर है दुनियादारी । छोड़ रहें हैं आज जगत वह, कल निश्चित तेरी बारी ।। दिवस निशा का क्रम है शाश्वत, ऋतुऐं भी आते जाते । समय खेलता खेल मनोहर, खेल समझ ना तुम पाते।। आयु तुम्हारी घटती जाती, खबर तनिक ना तुम पाये । हरि सुमरन छोड़ जगत से, तुम नाहक मोह बढ़ाये ।।1।। वृद्ध देह की हालत सोचो, जाड़ा से कैसे बचते । कभी पीठ पर सूर्य चाहिये, कभी अनल ढेरी रचते ।। घुटनों के बीच कभी सिर रख, मुश्किल से प्राण बचाते । दीन दशा में देह पड़ा है, फिर भी मन आस जगाते ।।2।। तरूण हुये थे जब से तुम तो, जग में धन-धान्य बनाये । पूछ-परख तब परिजन करते, भांति-भांति तुम्हें रिझाये ।। हुआ देह अब जर्जर देखो, कुशल क्षेम भी ना वे पूछे । इधर-उधर अब भटकता बूढ़ा, जीवन जीने को ही जूझे ।।3।। कोई-कोई जटा बढ़ाये, कोई सिर केश मुढ़ाये । गेरूवा बाना कोई साजे, कोई अँग भस्म रंगाये ।। फिर भी दुनिया छोड़ न पाये, मन जीवन आस जगाये ।। सत्व तत्व खुद समझ न पाये, दुनिया को वह भरमाये ।।4।। भगवत गीता जो लोग पढ़े, जो गंगाजल पान किये । कृष्ण मुरारी कृष्ण मुरारी, कृष्ण भजन का गान किये ।। उनके अंंतिम बेला पर तो, कष्ट हरण यमराज किये । अंतकाल में देखा जाता, जीवन में क्या काज किये ।।5।। अंग शिथिल हो कॉंप रहा है, श्वेत केश झॉंक रहा है । दंत विहिन मुख कपोल पिचका, रोटी भी फॉंक रहा है । लाठी हाथों में डोल रहा , जीवन रहस्य खोल रहा । इतने पर भी हाय बुढ़ापा, मोह जगत से बोल रहा ।।6।। बचपन को तुम खेल बिताये, मित्र किशोरापन खाये । देह आर्कषण के फेर परे, तरूणाई तरूण गँवाये ।। फिर जाकर परिवार बसाये, धन दौलत प्रचुर बनाये । पाले नाहक चिंता अब तो, बैठ बुढ़ा हरि बिसराये ।।7।। जन्म मरण का आर्वत फिर फिर, जन्म लिये फिर मृत्यु गहे । अचल नहीं यह मृत्यु हमारी, मृत्यु बाद फिर जन्म पहे ।। फिर फिर जग में पैदा होना, फिर फिर जग से है मरना । टूटे अब यह दुस्तर आर्वत, देव, कृपा ऐसी करना ।।8।। फिर-फिर आती रहती रजनी, दिन भी तो फिर-फिर आते । पखवाड़ा भी फिरते रहते, अयन वर्ष भी फिर जाते ।। मानव मन की अभिलाषा है, जो मुड़कर कभी न देखे । देह जरा होवे तो होवे, पागल मन इसे न लेखे ।।9।। धन बिन क्या नाते-रिश्ते, जल विहिन जलाशय जैसे । देह आयु जब साथ न होवे, काम-इच्छा से प्रित कैसे ।। अरे बुढ़ापा कुछ चिंतन कर, क्या है अब पास तुम्हारे । हरि सुमरन विसार कर तुम, क्यों माया जगत निहारे ।।10।। रूपसी का रूप निहारे क्यों, अहलादित होता मन है । वक्ष-नाभि में दृष्टि तुम्हारी, मांस-वसा का ही तन है ।। तन आकर्षण मिथ्या माया, विचलित तुमको करते हैं । अरे बुढ़ापा अंतकाल में, यह माया क्यो पलते हैं ।।11।। सारहीन यह स्वप्न लोक है, जगत मोह को तुम त्यागो । गहरी निद्रा पड़े हुये हो, ऑख खोल कर अब जागो ।। मैं कौन कहॉं से आया हूँ, मातु-पिता कौन हमारो । आत्म तत्व पर चिंतन करते, अब अपने आप विचारो।।12।। भगवत गीता पढ़ा करो कुछ, बिष्णु नाम जपा करो कुछ । ईश्वर स्वरूप का ध्यान धरो, पुण्य कर्म किया करो कुछ । संतो की संगति किया करो, दान-धर्म किया करो कुछ । दीन-हीन की मदद करो कुछ, इसके आगे बाकी तुछ ।।13।। प्राण देह में होता जबतक, पूछ-परख है रे तेरा । प्राण विहिन काया को फिर, कहे न कोई रे मेरा । दूजे की तो बातें छोड़ों, अंतरंग जीवन साथी । भूत मान कर डरती रहती, यही जगत की परिपाटी ।।14।। शारीरिक सुख के पीछे ही, भागता फिरता जवानी । स्त्री मोह मेंं है दीवाना, पुरूष मोह में दीवानी ।। देह वही अब जर्जर रोगी, अंत मृत्यु को ही पाये । देख-भालकर भी दुनिया को, ईश्वर शरण न वह जाये ।।15।। डगर पड़े चिथड़े की झोली, लेकर फिरता सन्यासी । पाप-पुण्य रहित डगर पर वह, कर्म विहिन रहे उदासी ।। समझ लिया जो इस दुनिया में, न मैं हूँ न तू न ही जगत । फिर भी क्यों वह शोकग्रस्त हो, डरता फिरता एक फकत ।।16।। चाहे गंगासागर जावे, चाहे व्रत उपवास करे । चाहे सारे तीरथ घूमे,चाहे कुछ बकवास करे ।। ज्ञानविहिन मुक्ति न संभव, आत्म तत्व को तो जाने । कर्म भोग जीवन का गहना, ज्ञान कर्म में तानो ।।17।।
-रमेश चौहान