रामचरित मानस –
गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस को ‘छहो शास्त्र सब ग्रंथन का रस’ कहा गया है अर्थात रामचरित मानस एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें सभी वेदों, पुराणों, एवं शास्त्रों का निचोड़ है । जीवन के हर मोड़ के लिये यह एक पदथप्रदर्शक के रूप में हमें दिशा देती है । इसी रामचरित मानस के प्रथम सोपान बालकाण्ड के दोहा संख्या 6 से दोहा संख्या 7 साधु असाधु में भेद और कुसंग और सुसंग का व्यापक व्याख्या है । आज संगति पर विचार समिचिन लग रहा है ।

जड़ चेतन गुन दोष मय-
रामचरित मानस के प्रथम सोपान बालकाण्ड़ के दोहा संख्या 6 में गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं-
जड़ चेतन गुन दोष मय, बिश्व कीन्ह करतार । संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार ।।6।।
अर्थ-
करतार अर्थात ब्रम्हा ने विश्व को गुण और दोष युक्त जड़ और चेतन की रचना की है । जो लोग संत होते हैं, वे हंस जैसे केवल दूध रूपी गुण को ग्रहण करते हैं और पानी रूपी बिकार अर्थात दोष को छोड़ देते हैं ।
गुणार्थ-
‘बिधि प्रपंच गुन अवगुन साना’ विधाता ने माया में गुण और अवगुण मिला दिया है । अब इस गुण और अवगुण के मिश्रण गुण को पृथ्क करने का सामर्थ्य तो केवल संत में है । संत ही हैं जो आम जन को इस माया से गुण को अलग करके देता है ।
यहॉं संत को परिभाषित किया गया है कि संत वहीं हैं जो गुण अवगुण युक्त माया से केवल गुण को पृथ्क करने का सामर्थ्य रखता है ।
अस बिबेक जब देइ बिधाता-
अस बिबेक जब देइ बिधाता । तब तजि दोष गुनहिं मनु राता
अर्थ-
ऐसा विवेक, ऐसी बुद्धि जब विधाता दें, तभी दोष छोड़ कर मन गुण में रत रह सकता है ।
गुणार्थ-
ऐसा विवेक अर्थात हंस जैसा विवेक गुण और अवगुण को अलग करने की सामर्थ्ययुक्त बुद्धि एक तो विधाता दे सकते हैं दूसरा सत्संग से प्राप्त किया जा सकता है । यदि आप स्वयं हंस नहीं है तो दूध और पानी को अलग नहीं कर सकते किन्तु आप यदि इनका बिलगाव चाहते हैं तो हंस का सहयोग लेना ही होगा । ठीक इसी प्रकार यदि हम माया से गुण दोष को अलग नहीं कर सकते तो हंस रूप संत का संतसंग करके गुण दोष को पृथ्क कर सकते हैं ।
काल सुभाउ करम बरिआई-
काल सुभाउ करम बरिआई । भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई
अर्थ-
काल अर्थात समय के स्वभाव से और कर्म की प्रबलता से प्रकृति अर्थात माया के वशीभूत होकर भले लोग भी भलाई करने से चुक जाते हैं ।
गुणार्थ-
‘काल, करम गुन सुभाउ सबके सीस तपत’ सभी प्राणियों शिश पर पर काल और कर्म का प्रभाव उपद्रव करते फिरता है इस प्रभाव से एक आवरण पड़ जाता है जिससे भले लोग भी भलाई करने से चूक जाते हैं अर्थात गुण और अवगुण में भेद नहीं कर सकते । इसका सरल उपाय गोस्वामीजी स्वयं देते हैं- ‘काल धर्म नहिं व्यापहिं ताहीं । रघुपति चरन प्रीति अति जाहीं” काल और कर्म के प्रभाव से जो आवरण बन जाता है उस आवरण को केवल और केवल रघुपति के चरण पर प्रीति रखने से नष्ट किया जा सकता है ।
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं-
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं । दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं
अर्थ-
काल और कर्म के प्रभाव जो भलाई करने से चूक जाते हैं, इस चूक को हरिजन अर्थात ईश्वर भक्त सुधार लेते हैं । अपने चूक को सुधारते हुये ऐसे लोग दुख और दोष का दमन करके विमल यश को देते हैं ।
गुणार्थ-
ल सुधार की शक्ति केवल हरिभक्त के पास है । गोस्वामीजी कहते हैं-‘नट कृत कपट बिकट खगराया । नट सेवकहिं न ब्यापहिं माया’ अर्थात इस सृष्टि के नट अर्थात ईश्वर द्धारा बनाया गया माया विकट है, यदि उस नट की सेवारत रहा जाये तो यह विकटता उसे नहीं व्यापता । काल कर्म का प्रभाव तो होगा उसका भोग देह को भी होगा किन्तु मन को नहीं क्योंकि -‘मन जहँ जहँ रघुबर बैदेही । बिनु मन तन दुख सुख सुधि केहि’ जब मन ईश्वर भक्ति में लगा हो तो बिना मन के तन को होने वाले सुख दुख की अनुभूती ही किसे होगी ?
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू-
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू । मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू
अर्थ-
खल भी अच्छी संगती पाकर भलाई करने लगते हैं किन्तु उनके मन का स्वभाव मिटता नहीं जैसे ही वह कुसंग के प्रभाव में आता है भलाई करना छोड़ देता है ।
गुणार्थ-
संत और खल दोनों का स्वभाव स्थिर रहता है किन्तु दोनों में एक भेद है संत भलाई करने के गुण को किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ता वहीं खल परिस्थिति के अनुसार बदल जाते हैं जब सुसंग का प्रभाव होता है वह भलाई करने लगते किन्तु कुसंग के प्रभाव में आते ही अपने मूल स्वभाव के अनुसार भलाई करना छोड़ देता है ।
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ-
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ । बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ उघरहिं अंत न होइ निबाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू
अर्थ-
दुनिया में जो बंचक अर्थात कपटी हैं सुंदर वेष अर्थात साधु के वेष को धारण करने के कारण केवल वेष के प्रभाव से पूजे जाते हैं । जो कपटी केवल सुंदर वेष के कार पूजे जाते हैं अंत उनका कपट खुल ही जाता है जिस प्रकार हनुमान के पथ के बाधा बने कपटी साधु कालनेमी, सीताहरण के साधु बने रावण और अमृतपान करने दैत्य राहू का कपटी देव रूप का भेद खुल गया ।
गुणार्थ-
छद्म का आज नहीं कल पर्दाफााश होना ही होना है । इसलिये बनावटी चरित्र का दिखावा न करें अपितु अपने चरित्र में परिवर्तन लावें । यह परिवर्तन केवल सुसंग अच्छे लोगों की संगति में बने रहने से ही संभव है । अपने मानसिक शक्ति में व;द्धि करने के लिये अपने आत्मबल को जागृत करने के लिये सही संगत का चयन कीजिये ।
हानि कुसंग सुसंगति लाहू-
हानि कुसंग सुसंगति लाहू । लोकहुं बेद बिदित सब काहू
अर्थ-
कुसंग से हानि और सुसंग से लाभ होता है । इस बात को सभी कोई जानते हैं हमारे वेदों ने भी इसी बात का उपदेश किया है ।
गुणार्थ-
वेदों द्वारा अनुमोदित इस तथ्य को सभी जानते हैं कि कुसंग से केवल नुकसान ही होता और सुसंग केवल लाभ ही लाभ । जानते तो सभी कोई हैं किन्तु इस बात अंगीकार करने वाल विरले ही हैं । विरले ही लोग साधु होते हैं, इन्हें ही संत की संज्ञा दी जाती है ।
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा-
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलइ नीच जल संगा
अर्थ-
तुलसीदास धूल की संगति का उदाहरण देते हुये कहते हैं कि धूल वही किन्तु संगति के प्रभाव से उसका महत्व अलग-अलग हो जाता है । जब धूल वायु के संपर्क में आता है तो वायु के साथ मिलकर आकाश में उड़ने लगता है किन्तु जब वही धूल जल की संगति करता है किचड़ बन कर पैरों तले रौंदे जाते हैं ।
गुणार्थ-
जब धूल जल के साथ मिलकर कीचड़ बन जाता है तो उस कीचड़ को पवन उड़ा नहीं सकता उसी प्रकार कुसंगति के अधिक प्रभाव हो जाने पर संत उस मूर्ख को नहीं सुधार सकता-
'फूलइ फरइ न बेत, जदपि सुधा बरसइ जलद । मूरूख हृदय न चेत, जो गुरू मिलहिं बिरंचि सम ।।
साधु असाधु सदन सुकसारी-
साधु असाधु सदन सुकसारी ।सुमरहि रामु देहिं गनिगारी
अर्थ-
साधु और असाधु दोनों घरों के पालतू तोता में भी संगति का अंतर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । साधु के सानिध्य का तोता राम-राम बोलता है जबकि असाधु के संगत वाला तोता गिन-गिन कर गालियां देता है ।
गुणार्थ-
संगति का प्रभाव वृहद और अवश्यसंभावी होता है । जिस प्रकार गिरगिट परमौसम और परिवेश का यह प्रभाव होता है उसके शरीर का रंग बदल जाता है ।
‘संत संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।’ संतो का सतसंग करना स्वर्ग दिला सकता है वहीं कामी का संग करना संसार रूपी भव सागर डूबो देती है ।
धूम कुसंगति कारिख होई-
धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु सोई सोइ जल अलन अनिल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता
अर्थ-
धुँआ की संगति को परख कर देखिये वहीं धुँआ कुसंगति के प्रभाव से धूल-धूसरित होकर कालिख बन अपमानित होता है तो वही धुँआ सत्संगति के प्रभाव से स्याही बन पावन ग्रंथों में अंकित होकर सम्मानित होता है । वहीं धुऑं जल अग्नि और वायु के संपर्क में आकर मेघ बना जाता है और यही मेघ दुनिया के जीवनदाता कहलाता है ।
गुणार्थ-
संगति व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व और कर्म को प्रभावित कर सकता है । कुसंग के प्रभाव से जहां वह जगत के लिये भार होता है वहीं सुसंग के प्रभाव जगत के लिये मंगलकारी ।
ग्रह भेषज जल पवन पट-
ग्रह भेषज जल पवन पट, पाइ कुजोग सुजोग । होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ।।7।।
अर्थ-
ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र संगति के कारण भले और बुरे हो जाते हैं । ज्योतिषशास्त्र के अनुसार कुछ ग्रह शुभ और कुछ ग्रह अशुभ होते हैं किन्तु द्वादश भाव में विचरण करते हुये किसी स्थान शुभ परिणाम देते हैं तो किसी स्थान पर अशुभ परिणाम देते हैं । आयाुर्वेद के औषधि के लिये पथ्य-अपथ्य निर्धारित हैं । यदि पथ्य पर औषधि अच्छे परिणाम देते हैं जबकि अपथ्य से बुरे परिणाम हो सकते हैं । वायु सुंगंध के संपर्क में होने पर सुवासित और दुर्गंध के संपर्क में होने सडांध फैलाता है । इसी प्रकार शालिनता के संपर्क में वस्त्र पूज्य हो जाते हैं जबकि अश्लिलता के संपर्क से तृस्कृत होते हैं ।
गुणार्थ-
एक वस्तु के दूसरे वस्तु के संपर्क में आने पर या एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आने पर एक दूसरे के गुणों में सकारात्मक या नकारात्मक परिवर्तन अवश्यसंभावी हैं । अपने अंदर सकारात्मक परिवर्त करने लिये ऐसे परिवेश, ऐसे मित्रों या ऐसे सहचर्यो का चयन करना चाहिये जिससे अच्छे विचार जागृत हों, अच्छे कर्मो को करने की प्रेरणा मिले ।