चीं-चीं चिड़िया चहकती, मुर्गा देता बाँग ।
शीतल पवन सुगंध बन, महकाती सर्वांग ।।
पुष्पकली पुष्पित हुई, निज पँखुडियाँ प्रसार ।
उदयाचल में रवि उदित, करता प्राण संचार ।।
जाग उठे हैं नींद से, सकल सृष्टि संसार ।
जागो जागो हे मनुज, बनों नहीं लाचार ।।
बाल समय यह दिवस का, अमृत रहा है बाँट ।
आँख खोल कर पान कर, भरकर अपनी माँट ।।
(माँट-मिट्टी का घड़ा)
वही अभागा है जगत, जो जागे ना प्रात ।
दिनकर दिन से कह रहा, रूग्ण वही रह जात ।।
सुबह सवेरे जागिए, जब जागे हैं भोर ।
समय अमृतवेला मानिए, जिसके लाभ न थोर ।।
जब पुरवाही बह रही, शीतल मंद सुगंध ।
निश्चित ही अनमोल है, रहिए ना मतिमंद ।।
दिनकर की पहली किरण, रखता तुझे निरोग ।
सूर्य दरश तो कीजिए, तज कर बिस्तर भोग ।।
दीर्घ आयु यह बांटता, काया रखे निरोग ।
जागो जागो मित्रवर, तज कर मन की छोभ ।।
-रमेश चौहान
हिन्दी भाषी भी यहां, देवनागरी छोड़ । रोमन में हिन्दी लिखें, अपने माथा फोड़ ।।
देश मनाये हिन्दी दिवस, जाने कितने लोग । जाने सो माने नहीं, कैसे कहें कुजोग।।
देवनागरी छोड़ के, रोमन लिखे जमात । माॅं के छाती पर यथा, मार रहे हों लात ।।
दफ्तर दफ्तर देख लो, या शिक्षण संस्थान । हिन्दी कहते हैं किसे, कितनों को पहचान ।।
घाल मेल के रोग से, हिन्दी है बीमार । अँग्रेजी आतंक से, कौन उबारे यार ।।
हिन्दी की आत्मा यहाँ, तड़प रही दिन रात । देश हुये आजाद है, या है झूठी बात ।।
पहले हिन्दी हिन्द को, आप दीजिये मान । फिर भाषा निज प्रांत की, बोले आप सुजान ।।
प्रांत प्रांत से देश है, प्रांत देश का मान । ऊपर उठकर प्रांत से, रखें देश का भान ।।
दोहा मुक्तक-
फँसी हुई है जाल में, हिन्दी भाषा आज । अँग्रेजी में रौब है, हिन्दी में है लाज ।। लोकतंत्र के तंत्र सब, अंग्रेजी के दास । अपनी भाषा में यहां, करे न कोई काज ।।
कुण्डलियां-
हिन्दी बेटी हिन्द की, ढूंढ रही सम्मान ।
ग्राम नगर व गली गली, धिक् धिक् हिन्दुस्तान ।
धिक् धिक् हिन्दुस्तान, दासता छोड़े कैसे ।
सामंती पहचान, बेड़ियाँ तोड़े कैसे।।
कह ‘रमेश‘ समझाय, करें माथे की बिन्दी ।
बन जा धरतीपुत्र, बड़ी ममतामय हिन्दी ।।
हिन्दी अपने देश, बने अब जन जन भाषा ।
टूटे सीमा रेख, लोक मन हो अभिलाषा ।।
कंठ मधुर हो गीत, जयतु जय जय जय हिन्दी ।
मातृभाषा की बोल, खिले जस माथे बिन्दी ।।
भाषा-बोली भिन्न है, भले हमारे प्रांत में ।
हिन्दी हम को जोड़ती, भाषा भाषा भ्रांत में ।।
त्रिभंगी छंद-
भाषा यह हिन्दी, बनकर बिन्दी, भारत मां के, माथ भरे ।
जन मन की आशा, हिन्दी भाषा, जाति धर्म को, एक करे ।।
कोयल की बानी, देव जुबानी, संस्कृत तनया, पूज्य बने ।
एक दिवस ही क्यों, पर्व लगे ज्यों, निशदिन निशदिन, कंठ सने ।।