अनुष्टुप छंद-

अनुष्टुप छंद एक वैदिक वार्णिक छंद है । इस छंद को संस्स्कृत में प्राय: श्लोक कहा जाता है या यों कहिये श्लोक ही अनुष्टुप छंद है । संस्कृत साहित्य में सबसे ज्यादा जिस छंद का प्रयोग हुआ है, वह अनुष्टुप छंद ही है ।
अनुष्टुप छंद का विधान-
अनुष्टुप छंद 4 चरणों एवं दो पदों का वार्णिक छंद हैं जिसके प्रत्येक चरणों में 8-8 वर्ण होते हैं । इन आठ वर्णो में गुरू-लघु का नियम होता है । संस्कृत में तुक की अनिवार्यता नहीं थी, हिन्दी में तुक का ज्यादा प्रचलन है इसलिये इस छंद में तुकांत को ऐच्छिक रखा गया चाहे रचनाकार तुकांत रखे चाहे तो न रखें । इसके नियम को निम्नवत रेखांकित किया जा सकता है-
- विषम चरण – वर्ण क्रमांक पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ क्रमशः लघु, गुरू, गुरू, गुरू
- सम चरण – वर्ण क्रमांक पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ क्रमशः लघु, गुरू, लघु, गुरू
- तुकांतता-ऐच्छिक
अनुष्टुप छंद की परिभाषा अनुष्टुप छंद में-
आठ वर्ण जहां आवे, अनुष्टुपहि छंद है । पंचम लघु राखो जी, चारो चरण बंद में ।। छठवाँ गुरु आवे है, चारों चरण बंद में । निश्चित लघु ही आवे, सम चरण सातवाँ ।। अनुष्टुप इसे जानों, इसका नाम श्लोक भी । शास्त्रीय छंद ये होते, वेद पुराण ग्रंथ में ।। -रमेश चौहान
अनुष्टुप छंद का उदाहरण-
राष्ट्रधर्म कहावे क्या, पहले आप जानिये । मेरा देश धरा मेरी, मन से आप मानिये ।। मेरा मान लिये जो तो, देश ही परिवार है । अपनेपन से होवे, सहज प्रेम देश से ।। सारा जीवन है बंधा, केवल अपनत्व से । अपनापन सीखाये, स्व पर बलिदान भी ।। सहज परिभाषा है, सुबोध राष्ट्रधर्म का । हो स्वभाविक ही पैदा, अपनापन देश से ।। अपनेपन में यारों, अपनापन ही झरे । अपनापन ही प्यारा, प्यारा सब ही लगे ।। अपना दोष औरों को, दिखाता कौन है भला । अपनी कमजोरी को, रखते हैं छुपा कर ।। अपने घर में यारों, गैरों का कुछ काम क्या । आवाज शत्रु का जो हो, अपना कौन मानता ।। होकर घर का भेदी, अपना बनता कहीं । राष्ट्रद्रोही वही बैरी, शत्रु से मित्र भी बड़ा ।। -रमेश चौहान