इस श्रेणी में भारतीय काव्य समर्थित रचनायें प्रकाशित किये जा रहें हैं । इस श्रेणी में दोहा, चौपाई, सवैया, घनाक्षरी, कुण्डलियां जैसे प्रचलित छंदों के साथ-साथ अप्रचलित छंदों पर भी रचनायें प्रकाशित किये जा रहें हैं । इसके अतिरिक्त छंद विधान भी प्रस्तुत किये जा रहे हैं ।
प्रस्तुत भजन सार छंद में लिखि गई है । भारतीय संस्कृति और साहित्य का विशेष महत्व है । हिन्दी साहित्य स्वर्ण युग के कवि तुलसीदास, सूरदास, कबीर दास जैसे संतों ने अपनी रचनायें छंदों में ही लिखी हैं । इसके बाद भी छंदों का प्रचलन बना हुआ है । ‘सार छंद में चार पद होते हैं, प्रत्येक पद में 16,12 पर यति होता है । दो-दो पदों के अंत में समतुकांत होता है ।‘ सार छंद गीत और भजन लिखने के लिये सर्वाधिक प्रयोग में लाई जाती है ।
भजन का भवार्थ-
प्रस्तुत भजन में भगवान कृष्ण के मनोहर लालित्यमयी बालचरित्र का वर्णन सहज सुलभ और सरल भाषा में व्यक्त किया गया है । भगवान कृष्ण अपने बाल्यकाल में कैसे अपने भक्त गोपियों के साथ वात्सल्य भाव प्रदर्शित करते हुये उनके घर माखन खाते तो ओ भी चोरी-चोरी । भगवान के बालचरित्र की चर्चा हो और माखन चोरी की बात न हो, ऐसा कहॉं संभव है । प्रस्तुत भजन में भगवान के इन्हीं माखन चोरी लीला का चित्रात्मक अभिव्यक्ति प्रस्तुत किया गया है ।
बाल कृष्ण
माखन चोरी की कथा-
मूलरूप से श्रीमद्भागवत के दशम् स्कन्ध में भगवान के बाल चरित्र के साथ माखन चोरी का मनोहारी चित्रण किया गया है । इसे ही आधार मानकर हिन्दी साहित्य आदिकालिन कवियों से लेकर हम जैसे आज के कवि उसी भाव को अपने शब्दों में अपनी भावना को व्यक्त करते आ रहे हैं ।
मूल कथा के अनुसार भगवान कृष्ण अपने बाल्यकाल में अपने ग्वाल सखाओं के साथ खेल-खेल में गोकुल के ग्वालिनीयों के यहाँ माखन चुराने जाये करते थे । उनके सखा मानव पिरामिड बना कर कृष्ण को अपने कंधों में उठा लिया करते थे । भगवान कृष्ण ऊपर टांगे गये शिके (रस्सी में बंधे हुये मटके, जिसमें माखन रखा जाता था) को उतार लेते थे और स्वयं माखन तो खाते ही थे साथ-साथ ही हँसी-ठिठोली के साथ अपने बाल सखाओं को भी माखन खिलाते थे ।
अचरज की बात है इस माखन चोरी से वे ग्वालिनीयें आत्मीय रूप से बहुत आनंदीत होती थी जिनके यहॉं माखन चोरी होता था, वे ग्वालिनी बाहर से कृष्ण को डांटती थी किन्तु मन ही मन अपने भाग्य को सराहती थी कि कृष्ण उनके हाथों से बनाये माखन को खा रहे हैं ।
इससे अधिक अचरज की बात यह थी कि जिस ग्वालिन के घर माखन चोरी नहीं होता था, वह ग्वालिन बहुत दुखी हो जाती थी, उनके मन में एक हिनभावना आ जाता था कि उसकी सखी के यहॉं माखन चोरी हुआ किन्तु स्वयं उनके यहॉं नही हुआ और वे मन ही भगवान कृष्ण से प्रार्थना करने लगती कि हे माखन चोर, मेरे माखन का भी भोग लगाइये, मेरे घर को भी पावन कीजिये ।
इन्हीं भावनाओं को मैनें अपने इस काव्य भजन में पिरोने का प्रयास किया है-
संग लिये प्रभु ग्वाल बाल को, करते माखन चोरी ।
मेरो घर कब आयेंगे वो, राह तके सब छोरी ।
संग लिये प्रभु ग्वाल बाल को, करते माखन चोरी ।
मेरो घर कब आयेंगे वो, राह तके सब छोरी ।
सुना-सुना घर वो जब देखे, पहुँचे होले-होले ।
शिका तले सब ग्वाले ठाँड़े, पहुँचे खिड़की खोले ।।
ग्वाले कांधे लिये कृष्ण को, कृष्णा पकड़े डोरी ।
संग लिये प्रभु ग्वाल बाल को, करते माखन चोरी ।
माखन मटका हाथ लिये प्रभु, बिहसी माखन खाये ।
कछुक कौर ग्वालों पर डारे, ग्वालों को ललचाये ।।
माखन मटका धरे धरा पर, लूटत सब बरजोरी ।
संग लिये प्रभु ग्वाल बाल को, करते माखन चोरी ।
ग्वालन छुप-छुप मुदित निहारे, कृष्ण करे जब लीला ।
अंतस बिहसी डांट दिखावे, गारी देत चुटीला ।।
कृष्ण संग गोपी ग्वालन, करते जोरा-जोरी ।
संग लिये प्रभु ग्वाल बाल को, करते माखन चोरी ।
हिन्दी साहित्य के स्वर्णयुग में जहाँ भावों में भक्ति और अध्यात्म का वर्चस्व था वहीं काव्य शिल्प छंद का सर्वत्र प्रभाव था । इस समय दोहा छंद के बाद सर्वाधिक प्रचलित एवं लोकप्रिय छंद घनाक्षरी रहा । इतने समय बाद आज भी घनाक्षरी छंद का प्रभाव यथावत बना हुआ है । केवल उसके कथ्य और कहन में अंतर आया है किन्तु शिल्प विधान और महत्व यथावत बने हुये हैं । आज ऐसा कोई कवि सम्मेलन शायद ही होते होंगे जिसमें घनाक्षरी छंद नहीं पढ़े जाते होंगे । इसी बात से इस छंद का महत्व का पता चलता है ।
घनाक्षरी छंद का उद्भव-
हिन्दी साहित्य में घनाक्षरी छंद का प्रयोग कब से हो रहें यह ठीक-ठीक कह पाना संभवन नहीं किन्तु हिन्दी साहित्यके स्वर्णिम युग में घनाक्षरी छंद न केवल परिचय होता अपितु प्रचुरता में भी उपलब्ध होता है। घनाक्षरी या कवित्त के नाम से उस समय के प्रायः सभी कवियों ने इस विधा पर अपनी कवितायें लिखी हैं । कुछ प्रमुख उदाहरण इस प्रकार है :-
जगन्ननाथ प्रसाद ‘रत्नाकर’ की घनाक्षरी रचना –
कोऊ चले कांपि संग कोऊ उर चांपि चले कोऊ चले कछुक अलापि हलबल से । कहै रतनाकर सुदेश तजि कोऊ चलै कोऊ चले कहत संदेश अबिरल से ॥ आंस चले काहू के सु काहू के उसांस चले काहू के हियै पै चंद्रहास चले हल से । ऊधव के चलत चलाचल चली यौं चल अचल चले और अचले हूँ भये चल से ।।
तुलसीदास जी की घनाक्षरी रचना-
भक्तिकालिन प्रसिद्व कवि तुलसीदास जी ने हनुमान बाहुक की रचना इसी घनाक्षरी छंद के आधार मान कर किये हैं –
भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन.अनुमानि सिसु.केलि कियो फेरफार सो । पाछिले पगनि गम गगन मगन.मनए क्रम को न भ्रमए कपि बालक बिहार सो ।। कौतुक बिलोकि लोकपाल हरि हर बिधिए लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो। बल कैंधौं बीर.रस धीरज कैए साहस कैए तुलसी सरीर धरे सबनि को सार सो ।।
घनाक्षरी क्या है ?
घनाक्षरी एक वार्णिक छंद है, जिसके चार पद होते हैं, प्रत्येक पद में चार चरण होते हैं पहले तीन चरण में 8-8 वर्ण और चौथे चरण में 7 या 8 या 9 वर्ण होते हैं । अंतिम चरण में वर्णो की संख्या के आधार पर घनाक्षरी के प्रकार का निर्माण होता है ।
घनाक्षरी छंद के प्रकार
घनाक्षरी छंद मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं-
31 वर्णी घनाक्षरी- जिस घनाक्षरी के पहले तीन चरण में 8-8 वर्ण और सातवें चरण में 7 वर्ण हो कुल प्रत्येक पद में 32 वर्ण होते हैं । जैसे- मनहरण, जनहरण, और कलाधर ।
32 वर्णी घनाक्षरी- इस घनाक्षरी के चारो चरण में 8-8 वर्ण कुल 32 वर्ण होते हैं । जैसे-जलहरण, रूपघनाक्षरी, डमरू घनाक्षरी, कृपाण घनाक्षरी और विजया घनाक्षरी ।
33 वर्णी घनाक्षरीः इस घनाक्षरी के पहले तीन चरण में 8-8 वर्ण और चैथै चरण में 9 वर्ण होते हैं ! जैसे-देवघनाक्षरी
घनाक्षरी छंद की परिभाषा घनाक्षरी छंद में-
आठ-आठ आठ-सात, आठ-आठ आठ-आठ आठ-आठ आठ-नव, वर्ण भार गिन लौ ।। आठ-सात अंत गुरू, ‘मन’ ‘जन’ ‘कलाधर’, अंत छोड़ सभी लघु, जनहरण कहि दौ । गुरू लघु क्रमवार, नाम रखे कलाधर नेम कुछु न विशेष, मनहरण गढ़ भौ ।।
आठ-आठ आठ-आठ, ‘रूप‘ रखे अंत लघु अंत दुई लघु रख, कहिये जलहरण । सभी वर्ण लघु भर, नाम ‘डमरू’ तौ धर आठ-आठ सानुप्रास, ‘कृपाण’ नाम करण ।। यदि प्रति यति अंत, रखे नगण-नगण हो ‘विजया’ घनाक्षरी, सुजष मन भरण । आठ-आठ आठ-नव, अंत तीन लघु रख नाम देवघनाक्षरी, गहिये वर्ण शरण ।।
मनहरण घनाक्षरी-
घनाक्षरी में मनहरण घनाक्षरी सबसे अधिक लोकप्रिय है । इस लोकप्रियता का प्रभाव यहाँ तक है कि बहुत से कवि मित्र भी मनहरण को ही घनाक्षरी का पर्याय समझ बैठते हैं । इस घनाक्षरी के प्रत्येक पद में 8,8,8 और 7 वर्ण होते हैं प्रत्येक पद का अंत गुरू से होना अनिवार्य है किन्तु अंत में लघु-गुरू का प्रचलन अधिक है । चारो पद के अंत में समान तुक होता है ।
सुन्दर सुजान पर, मन्थ मुसकान पर, बांसुरी की तान पर, ठौरन ठगी रहै । मूरति विषाल पर, कंचनसी माल पर, हंसननी चाल पर, खोरन खगी रहै ।। भीहें धनु मैन पर, लोने जुग रैन पर, षुद्व रस बैन पर, वाहिद पगी रहै । चंचल से तन पर, सांवरे बदन पर, नंद के नंदन पर, लगन लगी रहै ।।
जनहरण घनाक्षरी-
इस घनाक्षरी के प्रत्येक पद 8,8,8,और 7 वर्ण होते हैं । प्रत्येक पद का 31 वां वर्ण गुरू शेष सभी वर्ण लघु होते हैं । चारो पद के अंत में समान तुक होता है ।
यदुपति जय जय, नर नरहरि जय जय, जय कमल नयन, जल गिरधरये । जगपति हरि जय, जय गुरू जग जय, जय मनसिज जय, जय मन हरये ।। जय परम सुमतिधर कुमतिन छयकर जगत तपत हर नरवरये । जय जलज सदृष छबि सुजन नलिन रवि पढ़त सुकवि जस जग परवे ।।
कलाधर घनाक्षरी-
इस घनाक्षरी के प्रत्येक पद 8,8,8,और 7 वर्ण होते हैं । प्रत्येक पद में क्रमषः गुरू-लघु 15 बार आता है और अंत में 1 गुरू होता है । चारो पद के अंत में समान तुक होता है ।
जाय के भरत्थ चित्रकूट राम पास बेगि हाथ जोरि दीन है सुप्रेम तें बिनैं करी । सीय तात माताा कौशिला वशिष्ठ आदि पूज्य लोक वेद प्रीति नीति की सुरीतिही धरी । जान भूप बैन धर्म पाल राम हैं सकोच धीर इे गँभीरबंधु की गलानि को हरी । पादुका दई पठाय औध को समाज साज देख नेह राम सीय के हिये कृपा भरी ।।
रूपघनाक्षरी-
इस घनाक्षरी के प्रत्येक पद में 8,8,8 और 8 के क्रम में 32 वर्ण होते हैं । 32 वां वर्ण अनिवार्य रूप से लघु होना चाहिये । चारो पद के अंत में समान तुक होता है ।
इस घनाक्षरी के प्रत्येक पद में 8,8,8 और 8 के क्रम में 32 वर्ण होते हैं । 31वां एवं 32वां वर्ण अनिवार्य रूप से लघु होना चाहिये अर्थात अंत में दो लघु होना चाहिये । चारो पद के अंत में समान तुक होता है ।
भरत सदा ही पूजे पादुका उते सनेम इते राम सीय बंधु सहित सिधारे बन । सूूूूूूपनखा कै कुरूप मारे खल झुंड घने हरी दससीस सीता राघव बिकल मन ।। मिले हनुमान त्यों सुकंठ सों मिताई ठानि वाली हति दीनों राज्य सुग्रीवहिं जानि जन । रसिक बिहारी केसरी कुमार सिंधु लांघि लंक सीय सुधि लायो मोद बाढ़ो तन ।।
डमरू घनाक्षरी-
इस घनाक्षरी के प्रत्येक पद में 8,8,8 और 8 के क्रम में 32 वर्ण होते हैं । सभी 32वों वर्ण अनिवार्य रूप से लघु होना चाहिये अर्थात सभी वर्ण लघु होना चाहिये । चारो पद के अंत में समान तुक होता है ।
रहत रजत नग नगर न गज तट गज खल कल गर गरल तरल धर । न गनत गन यष सघन अगन गन अतन हतन तन लसत नखर कर ।। जलज नयन कर चरण हरण अघ श्रण सकल चर अचर खचर तर । चहत छनक जय लहत कहत यह हर हर हर हर हर हर हर हर ।।
कृपाण घनाक्षरी –
इस घनाक्षरी के प्रत्येक पद में 8,8,8 और 8 के क्रम में 32 वर्ण होते हैं । सभी चरणों में सानुप्रास होता है अर्थात समान उच्चारण समतुक होता है । चारो पद के अंत में समान तुक होता है ।
चलह है के विकराल, महाकालहू को काल, किये दोउ दृग लाल, धाई रन समुहान । जहां क्रुध है महान, युद्व करि घमसान, लोथि लोथि पै लदान, तड़पी ज्यों तड़ियान ।। जहां ज्वाला कोट भान, के समान दरसान, जीव जन्तु अकुलान, भूमि लागी थहरान । तहां लागे लहरान, निसिचरहूं परान, वहां कालिका रिसान, झुकि झारी किरपान ।।
विजया घनाक्षरी-
इस घनाक्षरी के प्रत्येक पद में 8,8,8 और 8 के क्रम में 32 वर्ण होते हैं । सभी पदो ंके अंत में लघु गुरू या नगण मतलब तीन लघु होना चाहिये । चारो पद के अंत में समान तुक होता है ।
भई हूँ अति बावरी बिरह घेरी बावरी चलत है चवावरी परोगी जाय बावरी । फिरतिहुं उतावरी लगत नाहीं तावरी सुबारी को बतावरी चल्यों है जात दांवरी ।। थके हैं दोऊ पांवरी चढ़त नाहीं पांवरी पियारो नाहीं पांवरी जहर बांटि खांवरी । दौरत नाहीं नावरी पुकार के सुनावरी सुन्दर कोऊ नावरी डूबत राखे नावरी ।।
देवघनाक्षरी –
इस घनाक्षरी के प्रत्येक पद में 8,8,8 और 9 के क्रम में 33 वर्ण होते हैं । सभी पदो ंके अंत में नगण मतलब तीन लघु होना चाहिये । चारो पद के अंत में समान तुक होता है ।
पहले के तीन चरण में आठ-आठ वर्ण निश्चित रूप से होते हैं ।
चौथे चरण में सात, आठ या नौ वर्ण हो सकते हैं ! इसी अंतर से घनाक्षरी का प्रकार बनता है ।
चौथे चरण में सात वर्ण होने पर मनहरण, जनहरण और कलाधर नाम का घनाक्षरी बनता है ! जिसमें लघु गुरू का भेद होता है ।
चौथे चरण में आठ वर्ण होने पर रूप, जलहरण, डमरू, कृपाण और विजया नाम का घनाक्षरी बनता है । जिसमें लघु गुरू का भेद होता है ।
चौथे चरण में नौ वर्ण आने पर देवघनाक्षरी बनता है ।
घनाक्षरी लिखना सीखें –
घनाक्षरी उपरोक्त नियमों के आधार पर लिखा जा सकता है किन्तु इसके लिये हमें वर्ण की गणना करना और वर्ण में लघु गुरू का निर्धारण करने आना चाहिये । इसलिये सबसे पहले हम वर्ण को समझने का प्रयास करेंगे फिर वर्ण लघु-गुरू का निर्धारण करना देखेंगे तत्पष्चात षब्दों में वर्णो की गणना करना सीखेंगे अंत में घनाक्षरी लिखना जानेंगे ।
वर्ण-
‘‘मुख से उच्चारित ध्वनि के संकेतों, उनके लिपि में लिखित प्रतिकों को ही वर्ण कहते हैं ।’’ हिन्दी वर्णमाला में 53 वर्णो को तीन भागों में भाटा गया है-
हिंदी वर्णमाला के सभी वर्ण चाहे वह स्वर हो, व्यंजन हो, संयुक्त वर्ण हो, लघु मात्रिक हो या दीर्घ मात्रिक सबके सब एक वर्ण के होते हैं ।
अर्ध वर्ण की कोई गिनती नहीं होती ।
उदाहरण-
कमल=क+म+ल=3 वर्ण पाठशाला= पा+ठ+शा+ला =4 वर्ण रमेश=र+मे+श=3 वर्ण सत्य=सत्+ य=2 वर्ण (यहां आधे वर्ण की गिनती नहीं की गई है) कंप्यूटर=कंम्प्+यू़+ट+र=4वर्ण (यहां भी आधे वर्ण की गिनती नहीं की गई है)
लघु-गुरू का निर्धारण करना-
वर्णो के ध्वनि संकेतो को उच्चारित करने में जो समय लगता है उस समय को मात्रा कहते हैं । यह दो प्रकार का होता है-
लघु- जिस वर्ण के उच्चारण में एक चुटकी बजाने में लगे समय के बराबर समय लगे उसे लघु मात्रा कहते हैं। इसका मात्रा भार 1 होता है ।
गुरू-जिस वर्ण के उच्चारण में लघु वर्ण के उच्चारण से अधिक समय लगता है उसे गुरू या दीर्घ कहते हैं ! इसका मात्रा भार 2 होता है ।
लघु गुरु निर्धारण के नियम-
हिंदी वर्णमाला के तीन स्वर अ, इ, उ, ऋ एवं अनुनासिक-अँ लघु होते हैं और इस मात्रा से बनने वाले व्यंजन भी लघु होते हैं । लघु स्वरः-अ,इ,उ,ऋ,अँ लघु व्यंजनः- क, कि, कु, कृ, कँ, ख, खि, खु, खृ, खँ ..इसीप्रकार
इन लघु स्वरों को छोड़कर शेष स्वर आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ और अनुस्वार अं गुरू स्वर होते हैं तथा इन से बनने वाले व्यंजन भी गुरु होता है । गुरू स्वरः- आ, ई,ऊ, ए, ऐ, ओ, औ,अं गुरू व्यंजन:- का की, कू, के, कै, को, कौ, कं,……..इसीप्रकार
अर्ध वर्ण का स्वयं में कोई मात्रा भार नहीं होता,किन्तु यह दूसरे वर्ण को गुरू कर सकता है ।
अर्ध वर्ण से प्रारंभ होने वाले शब्द में मात्रा के दृष्टिकोण से भी अर्ध वर्ण को छोड़ दिया जाता है ।
किंतु यदि अर्ध वर्ण शब्द के मध्य या अंत में आवे तो यह उस वर्ण को गुरु कर देता है जिस पर इसका उच्चारण भार पड़ता है । यह प्रायः अपनी बाँई ओर के वर्ण को गुरु करता है ।
यदि जिस वर्ण पर अर्ध वर्ण का भार पड़ रहा हो वह पहले से गुरु है तो वह गुरु ही रहेगा ।
संयुक्त वर्ण में एक अर्ध वर्ण एवं एक पूर्ण होता है, इसके अर्ध वर्ण में उपरोक्त अर्ध वर्ण नियम लागू होता है ।
उदाहरण-
रमेश=र+मे+श=लघु़+गुरू+लघु=1+2+1=4 मात्रा सत्य=सत्य+=गुरु+लघु =2+1=3 मात्रा तुम्हारा=तु़+म्हा+रा=लघु+गुरू+गुरू =1+2+2=5 मात्रा कंप्यूटर=कम्प्+यू+ट+र=गुरु़+गुरु़+लघु़+लघु=2+2+1+1=6 मात्रा यज्ञ=यग्+य=गुरू+लघु=2+1=3 क्षमा=क्ष+मा=लघु+गुरू =1+2=3
वर्णिक एवं मात्रिक में अंतर-
जब उच्चारित ध्वनि संकेतो को गिनती की जाती है तो वार्णिक एवं ध्वनि संकेतों के उच्चारण में लगे समय की गणना लघु, गुरू के रूप में की जाती है इसे मात्रिक कहते हैं । मात्रिक में मात्रा महत्वपूर्ण होता है वार्णिक में वर्ण महत्वपूर्ण होता है । लेकिन दोनों प्रकार के छंद रचना में इन दोनों का ज्ञान होना आवश्यक है ।
उदाहरण- रमेश=र+मे+श=4 वर्ण, रमेश=र+मे+श=लघु़+गुरू+लघु=1+2+1=4 मात्रा कंप्यूटर=कंम्प्+यू़+ट+र=4वर्ण, कंप्यूटर=कम्प्+यू+ट+र=गुरु़+गुरु़+लघु़+लघु=2+2+1+1=6 मात्रा सत्य=सत्+ य=2 वर्ण, सत्य=सत्य+=गुरु+लघु =2+1=3 मात्रा
घनाक्षरी रचना का अभ्यास –
उपरोक्त जानकारी के पश्चात हम एक घनाक्षरी की रचना का अभ्यास करते हैं । सबसे पहले आपको एक विचार या सोच की आवश्यकता होती है । सबसे पहले इस विचार को शब्द में बदलना है फिर शब्दों का चयन ऐसे करना है कि घनाक्षरी के नियमों का पूरा-पूरा पालन हो सके ।
हम एक मनहरण घनाक्षरी लिखने का अभ्यास करते है-
विचार-
मनहरण घनाक्षरी को मनहरण घनाक्षरी में परिभाषित करना । मनहरण घनाक्षरी के नियमः- मनहरण घनाक्षरी में चार पद होते हैं जिसके प्रत्येक पद में चार चरण होते हैं । पहले तीन चरण 8-8 वर्ण और चैथे चरण में 7 वर्ण होता हैजिसका अंत लघु गुरू से हो । इसी कथन को घनाक्षरी में लिखने का प्रयास करते हैं-
पहला पद-
पहला चरण- ‘वर्ण-छंद घनाक्षरी’ (8 वर्ण)
दूसरा चरण- ‘ गढ़न हरणमन’ (8 वर्ण)
तीसरा चरण- ‘ नियम-धियम आप’ (8 वर्ण)
चौथा चरण- ‘धैर्य धर जानिए’ (7 वर्ण, अंत में लघु गुरू)
दूसरा पद –
पहला चरण- आठ-आठ आठ-सात, (8 वर्ण)
दूसरा चरण- चार बार वर्ण रख (8 वर्ण)
तीसरा चरण- चार बार यति कर, (8 वर्ण)
चौथा चरण- चार पद तानिए (7 वर्ण, अंत में लघु गुरू, पलिे और दूसरे पद के अंत में समान तुक)
इसी प्रकार तीसरे और चैथे पद की रचना कर लेने पर एक घनाक्षरी संपूर्णरूप् में इस प्रकार होगा-
वर्ण-छंद घनाक्षरी, गढ़न हरणमन नियम-धियम आप, धैर्य धर जानिए । आठ-आठ आठ-सात, चार बार वर्ण रख चार बार यति कर, चार पद तानिए ।। गति यति लय भर, चरणांत गुरु धर साधि-साधि शब्द-वर्ण, नेम यही मानिए । सम-सम सम-वर्ण, विषम-विषम सम, चरण-चरण सब, क्रम यही पालिए ।।
जय जय जय गणराज प्रभु, जय गजबदन गणेश ।
विघ्न-हरण मंगल करण, हरें हमारे क्लेश।।
गिरिजा नंदन प्रिय परम, महादेव के लाल ।
सोहे गजमुख आपके, तिलक किये हैं भाल ।।
तीन भुवन अरू लोक के, एक आप अखिलेश ।
जय जय जय गणराज प्रभु….
मातु-पिता के आपने, परिक्रमा कर तीन ।
दिखा दियेे सब देेव को, कितने आप प्रवीन ।
मातुु धरा अरू नभ पिता, सबको दे संदेश ।।
जय जय जय गणराज प्रभु…
प्रथम पूज्य आप प्रभुु, वंदन बारम्बार ।
करें काज निर्विघ्न अब, पूूजन कर स्वीकार ।।
श्रद्धा अरू विश्वास का, लाये भेट ‘रमेश‘ ।
जय जय जय गणराज प्रभु….
सबले पहिले होय ना, गणपति पूजा तोर ।
परथ हवं मैं पांव गा, विनती सुन ले मोर ।।
जय गणपति गणराज जय, जय गौरी के लाल ।
बाधा मेटनहार तैं, हे प्रभु दीनदयाल ।।
चौपाई
हे गौरा-गौरी के लाला । हे प्रभू तैं दीन दयाला
सबले पहिली तोला सुमरँव । तोरे गुण ला गा के झुमरँव
तही बुद्धि के देवइया प्रभु । तही विघन के मेटइया प्रभु
तोरे महिमा दुनिया गावय । तोरे जस ला वेद सुनावय
देह रूप गुणगान बखानय । तोर पॉंव मा मुड़ी नवावय
चार हाथ तो तोर सुहावय । हाथी जइसे मुड़ हा भावय
मुड़े सूंड़ मा लड्डू खाथस । लइका मन ला खूबे भाथस
सूपा जइसे कान हलावस । सबला तैं हा अपन बनावस
चाकर माथा चंदन सोहय । एक दांत हा मन ला मोहय
मुड़ी मुकुट के साज सजे हे । हीरा-मोती घात मजे हे
भारी-भरकम पेट जनाथे । हाथ जोड़ सब देव मनाथे
तोर जनम के कथा अचंभा ।अपन देह ले गढ़ जगदम्बा
सुघर रूप अउ देके चोला । अपन शक्ति सब देवय तोला
कहय दुवारी पहरा देबे । कोनो आवय डंडा देबे
गौरी तोरे हे महतारी । करत रहे जेखर रखवारी
देवन आवय तोला जांचे । तोरे ले एको ना बाचे
तोर संग सब हारत जावय । आखिर मा शिव शंकर आवय
होवन लागे घोर लड़ाई । करय सबो झन तोर बड़ाई
लइका मोरे ये ना जानय । तोरे बर त्रिसूल ल तानय
तोर मुड़ी जब काटय शंकर । मॉं के जोगे क्रोध भयंकर
देख क्रोध सब धरधर कांपे । शिव शंकर के नामे जापे
उलट-पुलट सब सृष्टि करीहँव । कहय कालिका मुंड पहिरहँव
गौरी गुस्सा शंकर जानय । तोला अपने लइका मानय
हाथी मुड़ी जोड़ जीयावय । मात-पिता दूनो अपनावय
नाम गजानन तोर धरावँय । पहिली पूजा देव बनावँय
मात-पिता ला सृष्टि बताये । प्रदिक्षण तैं सात लगाये
सरग ददा अउ धरती दाई ।तुहँर गोठ सबके मनभाई
तोर नाम ले मुहरुत करथन । जीत खुशी ला ओली भरथन
बने-बने सब कारज होथे । जम्मो बाधा मुड़धर रोथे
जइसन लम्बा सूंड़ ह तोरे । लम्बा कर दव सोच ल मोर
जइसन भारी पेट ह तोरे । गहरा कर दव बुद्धि ल मोरे
गौरी दुलार भाथे तोला । ओइसने दव दुलार मोला
गुरतुर लड्डू भाये तोला । गुरतुर भाखा दे दव मोला
हे लंबोदर किरपा करदव । मोरे कुबुद्धि झट्टे हरदव
मनखे ला मनखे मैं मानँव । जगत जीव ला एके जानँव
नाश करव प्रभु मोर कुमति के । भाल भरव प्रभु बुद्धि सुमति ले
अपने पुरखा अउ माटी के । नदिया-नरवा अउ घाटी के
धुर्रा-चिखला मुड़ मा चुपरँव। देश-राज के मान म झुमरँव
नारद-शारद जस बगरावय । मूरख 'रमेश' का कहि गावय
हे रिद्धी सिद्धी के दाता । अब दुख मेटव भाग्य विधाता
दोहा
शरण परत गणराज के, मिटय सकल दुख क्लेश ।
सुख देवय पीरा हरय, गणपति मोर गणेश ।।
जय जय गणराज प्रभु, रखव आस विश्वास ।
विनती करय 'रमेश' हा, कर लौ अपने दास ।।