इस श्रेणी में भारतीय काव्य समर्थित रचनायें प्रकाशित किये जा रहें हैं । इस श्रेणी में दोहा, चौपाई, सवैया, घनाक्षरी, कुण्डलियां जैसे प्रचलित छंदों के साथ-साथ अप्रचलित छंदों पर भी रचनायें प्रकाशित किये जा रहें हैं । इसके अतिरिक्त छंद विधान भी प्रस्तुत किये जा रहे हैं ।
देश हमारा हम देश के, देश हमारा मान है ।
मातृभूमि ऊंचा स्वर्ग से, भारत का यश गान है ।।
देश एक है सागर गगन एक रहे हर हाल में ।
देश भक्ति का चंदन सजे, नित्य हमारे भाल में ।।
धर्म हमारा हम धर्म के, जिस पर हमें गुमान है ।
धर्म-कर्म जीवन में दिखे,जो खुद प्रकाशवान है ।।
फंसे रहेंगे कब तलक हम, पाखंडियों के जाल में ।
देश भक्ति का चंदन सजे, नित्य हमारे भाल में ।।
जाति हमारी हम जाति के, जिस पर हम को मान है ।।
जाति-पाति से पहले वतन, ज्यों काया पर प्राण है ।।
बटे रहेंगे कब तलक हम, जाति- पाति जंजाल में ।
देश भक्ति का चंदन सजे, नित्य हमारे भाल में ।।
अपने का अभिमान है जब, दूजे का भी मान हो ।
अपना अपमान बुरा लगे जब, दूजे का भी भान हो ।।
फंसे रहेंगे कब तलक हम, नेताओं के जाल में ।
देश भक्ति का चंदन सजे, नित्य हमारे भाल में ।।
देवनागरी लिपि में लिखें, निज हिंदी की शान में ।
मोह दूसरों का छोड़ कर, खुश रहिए निज मान में ।।
देश एक है सागर गगन एक रहे हर हाल में ।
देश भक्ति का चंदन सजे, नित्य हमारे भाल में ।।
-रमेश चौहान
आजादी रण शेष है, हैं हम अभी गुलाम ।
आंग्ल मुगल के सोच से, करे प्रशासन काम ।।
मुगलों की भाषा लिखे, पटवारी तहसील ।
आंग्लों की भाषा रटे, अफसर सब तफसील ।।
लोकतंत्र में देश का, अपना क्या है काम ।
भाषा अरू ये कायदे, सभी शत्रु के नाम ।।
ना अपनी भाषा लिये, ना ही अपनी सोच ।
आक्रांताओं के जुठन, रखे यथा आलोच ।।
लाओं क्रांति विचार में, बनकर तुम फौलाद ।
निज चिंतन संस्कार ही, करे हमें आजाद ।
बढ़े महंगाई-
निर्भरता व्यवसाय पर, प्रतिदिन बढ़ती जाय ।
ये उपभोक्ता वाद ही, भौतिकता सिरजाय ।।
मूल्य नीति व्यवसाय का, हमें समझ ना आय ।
दस रूपये के माल को, सौं में बेचा जाय ।।
कभी व्यपारी आंग्ल के, लूट लिये थे देश ।
बढ़े विदेशी माल फिर, बांट रहे हैं क्लेश ।।
अच्छे दिन के स्वप्न को, ढूंढ रहे हैं लोग ।
बढ़े महंगाई कठिन, जैसे कैंसर रोग ।।
टेक्स हटाओं तेल से, सस्ता कर दो दाम ।
जोड़ो टेक्स शराब पर, चले बराबर काम ।।
प्रकृति और विज्ञान-
प्रकृति और विज्ञान में, पहले आया कौन ।
खोज विज्ञान कर रहा, सत्य प्रकृति है मौन ।।
समय-समय पर रूप को, बदल लेत विज्ञान ।
कणिका तरंग जान कर, मिला द्वैत का ज्ञान ।।
सभी खोज का क्रम है, अटल नही है एक ।
पहले रवि था घूमता, अचर पिण्ड़ अब नेक ।।
नौ ग्रह पहले मान कर, कहते हैं अब आठ ।
रंग बदल गिरगिट सदृश, दिखा रहे हैं ठाठ ।।
जीव जन्म लेते यथा, आते नूतन ज्ञान ।
यथा देह नश्वर जगत, नश्वर है विज्ञान ।।
सेवक है विज्ञान तो, इसे न मालिक मान ।
साचा साचा सत्य है, प्रकृति पुरुष भगवान ।।
कोटि कोटि है देवता, कोटि कोटि है संत ।
केवल ईश्वर एक है, जिसका आदि न अंत ।।
पंथ प्रदर्शक गुरु सभी, कोई ईश्वर तुल्य ।
फिर भी ईश्वर भिन्न है, भिन्न भिन्न है मूल्य ।।
आँख मूंद कर बैठ जा, नही दिखेगा दीप ।
अर्थ नही इसका कभी, बूझ गया है दीप ।।
बालक एक अबोध जब, नही जानता आग ।
क्या वह इससे पालता, द्वेष या अनुराग ।।
मीठे के हर स्वाद में, निराकार है स्वाद ।
मीठाई साकार है, यही द्वैत का वाद ।।
जिसको तू है मानता, गर्व सहित तू मान ।
पर दूजे के आस को, तनिक तुच्छ ना जान ।।
कितने धार्मिक देश हैं, जिनका अपना धर्म ।
एक देश भारत यहां, जिसे धर्म पर शर्म ।।
तोड़ें उसके दंभ को, दिखा रहा जो चीन ।
चीनी हमें न चाहिये, खा लेंगे नमकीन ।।
सरसी छंद-
सुनो सुनो ये भारतवासी, बोल रहा है चीन ।
भारतीय बस हल्ला करते, होतें हैं बल हीन ।।
कहां भारतीयों में दम है, जो कर सके बवाल ।
घर-घर तो में अटा-पड़ा है, चीनी का हर माल ।।
कहां हमारे टक्कर में है, भारतीय उत्पाद ।
वो तो केवल बाते करते, गढ़े बिना बुनियाद ।।
कमर कसो अब वीर सपूतो, देने उसे जवाब ।
अपना तो अपना होता है, छोड़ो पर का ख्वाब ।।
नही खरीदेंगे हम तो अब, कोई चीनी माल ।
सस्ते का मोह छोड़ कर हम, बदलेंगे हर चाल ।।
भारत के उद्यमियों को भी, करना होगा काम ।
करें चीन से मुकाबला अब, देकर सस्ते दाम ।।
हिन्दी भाषी भी यहां, देवनागरी छोड़ । रोमन में हिन्दी लिखें, अपने माथा फोड़ ।।
देश मनाये हिन्दी दिवस, जाने कितने लोग । जाने सो माने नहीं, कैसे कहें कुजोग।।
देवनागरी छोड़ के, रोमन लिखे जमात । माॅं के छाती पर यथा, मार रहे हों लात ।।
दफ्तर दफ्तर देख लो, या शिक्षण संस्थान । हिन्दी कहते हैं किसे, कितनों को पहचान ।।
घाल मेल के रोग से, हिन्दी है बीमार । अँग्रेजी आतंक से, कौन उबारे यार ।।
हिन्दी की आत्मा यहाँ, तड़प रही दिन रात । देश हुये आजाद है, या है झूठी बात ।।
पहले हिन्दी हिन्द को, आप दीजिये मान । फिर भाषा निज प्रांत की, बोले आप सुजान ।।
प्रांत प्रांत से देश है, प्रांत देश का मान । ऊपर उठकर प्रांत से, रखें देश का भान ।।
दोहा मुक्तक-
फँसी हुई है जाल में, हिन्दी भाषा आज । अँग्रेजी में रौब है, हिन्दी में है लाज ।। लोकतंत्र के तंत्र सब, अंग्रेजी के दास । अपनी भाषा में यहां, करे न कोई काज ।।
कुण्डलियां-
हिन्दी बेटी हिन्द की, ढूंढ रही सम्मान ।
ग्राम नगर व गली गली, धिक् धिक् हिन्दुस्तान ।
धिक् धिक् हिन्दुस्तान, दासता छोड़े कैसे ।
सामंती पहचान, बेड़ियाँ तोड़े कैसे।।
कह ‘रमेश‘ समझाय, करें माथे की बिन्दी ।
बन जा धरतीपुत्र, बड़ी ममतामय हिन्दी ।।
हिन्दी अपने देश, बने अब जन जन भाषा ।
टूटे सीमा रेख, लोक मन हो अभिलाषा ।।
कंठ मधुर हो गीत, जयतु जय जय जय हिन्दी ।
मातृभाषा की बोल, खिले जस माथे बिन्दी ।।
भाषा-बोली भिन्न है, भले हमारे प्रांत में ।
हिन्दी हम को जोड़ती, भाषा भाषा भ्रांत में ।।
त्रिभंगी छंद-
भाषा यह हिन्दी, बनकर बिन्दी, भारत मां के, माथ भरे ।
जन मन की आशा, हिन्दी भाषा, जाति धर्म को, एक करे ।।
कोयल की बानी, देव जुबानी, संस्कृत तनया, पूज्य बने ।
एक दिवस ही क्यों, पर्व लगे ज्यों, निशदिन निशदिन, कंठ सने ।।
पाँच प्रेरक कुण्डलियां Five Motivational kundaliyan (Photo by Pexels.com)
प्रेरक कुण्डलियां-
कठिनाई सर्वत्र है, चलें किसी भी राह ।
भ्रम बाधा सब तोड़िये, मन में भरकर चाह ।।
मन में भरकर चाह, बढ़ें मंजिल को पाने ।
नहीं कठिन वह राह इसे निश्चित ही जाने ।।
सुनलो कहे ‘रमेश’, हौसला है चिकनाई ।
हो यदि दृढ़ संकल्प, बचे ना कुछ कठिनाई ।।
मुश्किल भारी है नही, देख तराजू तौल ।
आसमान की दूरियां, अब है नहीं अतौल ।।
अब है नहीं अतौल, नीर जितने सागर में ।
लिये हौसले हाथ, समेटे हैं गागर में ।।
कहे बात ‘चैहान’, हौसला है बनवारी ।
रखें आप विष्वास, नहीं है मुश्किल भारी ।।
पाना हो जो लक्ष्य को, हिम्मत करें बुलंद ।
ध्येय वाक्य बस है यही, कहे विवेकानंद ।।
कहे विवेकानंद, रूके बिन चलते रहिये ।
लक्ष्य साधने आप, पीर तो थोड़ा सहिये ।
विनती करे ‘रमेष‘, ध्येय पथ पर ही जाना ।
उलझन सारे छोड़, लक्ष्य को जो हो पाना ।।
एक अकेले जूझिये, चाहे जो कुछ होय ।
समय बुरा जब होत है, बुरा लगे हर कोय ।
बुरा लगे हर कोय, साथ ना कोई देते ।
तब ईश्वर भी स्वयं, परीक्षा दुश्कर लेते ।।
छोड़ें देना दोष, जगत के सभी झमेले ।
सफल वही तो होय, बढ़े जो एक अकेले ।।
होते सकल जहान में, तीन तरह के लोग ।
एक समय को भूल कर, भोग रहे हैं भोग ।।
भोग रहे हैं भोग, जगत में असफल होकर ।
कोस रहें हैं भाग्य, रात दिन केवल सो कर ।।
एक सफल इंसान, एक पल ना जो खोते ।
कुछ ही लोग महान, समय से आगे होते ।
लगते अब गुरूपूर्णिमा, बिते दिनों की बात ।
मना रहे शिक्षक दिवस, फैशन किये जमात ।
शिक्षक से जब राष्ट्रपति, हुये व्यक्ति जब देश।
तब से यह शिक्षक दिवस, मना रहा है देश ।
कैसे यह शिक्षक दिवस, यह नेताओं का खेल ।
किस शिक्षक के नाम पर, शिक्षक दिवस सुमेल ।।
शिक्षक अब ना गुरू यहां, वह तो चाकर मात्र ।
उदर पूर्ति के फेर वह, पढ़ा रहा है छात्र ।
‘बाल देवो भव‘ है लिखा, विद्यालय के द्वार ।
शिक्षक नूतन नीति के, होने लगे शिकार ।
शिक्षक छात्र न डाटिये, छात्र डाटना पाप ।
सुविधाभोगी छात्र हैं, सुविधादाता आप ।।
कौन उठाये अब यहां, कागजात के भार ।
शिक्षक करे पुकार है, कैसे हो उद्धार ।।
हुये एक शिक्षक यहां, देश के प्रेसिडेंट ।
मना रहे शिक्षक दिवस, तब से यहां स्टुडेंट ।।
सारे शिक्षक साथ में, करें व्यवस्था देख ।
आज मनाने टीचर्स डे, नेता आये एक ।।
क्षिक्षा एक व्यपार है, शिक्षक कहां सुपात्र ।
प्रायवेट के नाम पर, शिक्षक नौकर मात्र ।।
भारतीय छंद विधा में सवैया का अपना विशेष महत्व होता है । अनेक कवियों ने सवैया में अपनी रचनाएं किये हैं । इसमें दो प्रसिद्ध रचनाओं की ओर आपका ध्यान आकर्षित कराना चाहूंगा । एक नरोतम दास की प्रसिद्ध रचना सुदामा चरित-
शीश पगा न झगा तन में प्रभु जाने को आहि बसे केहि ग्रामा
दूसरा बाबा तुलसीदास के हनुमान अष्टक-
को नहीं जानत है जग में प्रभु संकट मोचन नाम तिहारो
यह दोनों ही उदाहरण मतगयंद सवैया से हैं । मतगयंद सवैया में चार पद होते हैं, प्रत्येक पद में सात भगन (गुरु लघु लघु-211) के बाद दो गुरु आता है और चारों पद के अंत में समतुकांत होता है।
इसी मतगयंद सवैया पर मैंने भी प्रयास किया है । अपने इस प्रयास को आपके समक्ष प्रस्तुत करते हुए आपके सुझावों की कामना करता हूं-
सुंदर से अति सुंदर श्यामा (मत्तगयंद सवैया)
सुंदर केशव की छबि सुंदर, सुंदर केश किरीटहि सुंदर सुंदर कर्णहि कुण्डल सुंदर, सुंदर से अति सुंदर श्यामा । सुंदर मस्तक चंदन सुंदर, सुंदर घ्राण कपोलहि सुंदर । सुंदर लोचन भौं अति सुंदर, सुंदर से अति सुंदर श्यामा ।।
सुंदर मोहन का मुख सुंदर, सुंदर ओष्ठ हँसी अति सुंदर सुंदर भाषण बोलिय सुंदर, सुंदर से अति सुंदर श्यामा । सुंदर गर्दन सुंदर भूषण, सुंदर है पट अम्बर सुंदर । सुंदर है उर बाहुहि सुंदर, सुंदर से अति सुंदर श्यामा ।।
सुंदर माधव का पग सुंदर, सुंदर है चलना गति सुंदर । सुंदर ठाड़ भये अति सुंदर, सुंदर से अति सुंदर श्यामा ।। सुंदर है मुरली मुख सुंदर, सुंदर नृत्यहि प्रीतहि सुंदर । सुंदर संगत रंगत सुंदर, सुंदर से अति सुंदर श्यामा ।।
सुंदर गोकुल ब्रज सुंदर, सुंदर है यमुना जल सुंदर । सुंदर गोप सखा सखि सुंदर, सुंदर से अति सुंदर श्यामा ।। सुंदर हैं गउवें रज सुंदर, सुंदर पालन धावन सुंदर । सुंदर खेलहि मेलहि सुंदर, सुंदर से अति सुंदर श्यामा ।।
सुंदर कृष्णहि सृष्टिहि सुंदर, सुंदर लालन पालन सुंदर । सुंदर मारन धावन सुंदर, सुंदर से अति सुंदर श्यामा ।। सुंदर कृष्ण दयानिधि सुंदर, सुंदर कारज मारग सुंदर । सुंदर है चरित्र तन सुंदर, सुंदर से अति सुंदर श्यामा ।।
प्रस्तुत भजन सार छंद में लिखि गई है । भारतीय संस्कृति और साहित्य का विशेष महत्व है । हिन्दी साहित्य स्वर्ण युग के कवि तुलसीदास, सूरदास, कबीर दास जैसे संतों ने अपनी रचनायें छंदों में ही लिखी हैं । इसके बाद भी छंदों का प्रचलन बना हुआ है । ‘सार छंद में चार पद होते हैं, प्रत्येक पद में 16,12 पर यति होता है । दो-दो पदों के अंत में समतुकांत होता है ।‘ सार छंद गीत और भजन लिखने के लिये सर्वाधिक प्रयोग में लाई जाती है ।
भजन का भवार्थ-
प्रस्तुत भजन में भगवान कृष्ण के मनोहर लालित्यमयी बालचरित्र का वर्णन सहज सुलभ और सरल भाषा में व्यक्त किया गया है । भगवान कृष्ण अपने बाल्यकाल में कैसे अपने भक्त गोपियों के साथ वात्सल्य भाव प्रदर्शित करते हुये उनके घर माखन खाते तो ओ भी चोरी-चोरी । भगवान के बालचरित्र की चर्चा हो और माखन चोरी की बात न हो, ऐसा कहॉं संभव है । प्रस्तुत भजन में भगवान के इन्हीं माखन चोरी लीला का चित्रात्मक अभिव्यक्ति प्रस्तुत किया गया है ।
बाल कृष्ण
माखन चोरी की कथा-
मूलरूप से श्रीमद्भागवत के दशम् स्कन्ध में भगवान के बाल चरित्र के साथ माखन चोरी का मनोहारी चित्रण किया गया है । इसे ही आधार मानकर हिन्दी साहित्य आदिकालिन कवियों से लेकर हम जैसे आज के कवि उसी भाव को अपने शब्दों में अपनी भावना को व्यक्त करते आ रहे हैं ।
मूल कथा के अनुसार भगवान कृष्ण अपने बाल्यकाल में अपने ग्वाल सखाओं के साथ खेल-खेल में गोकुल के ग्वालिनीयों के यहाँ माखन चुराने जाये करते थे । उनके सखा मानव पिरामिड बना कर कृष्ण को अपने कंधों में उठा लिया करते थे । भगवान कृष्ण ऊपर टांगे गये शिके (रस्सी में बंधे हुये मटके, जिसमें माखन रखा जाता था) को उतार लेते थे और स्वयं माखन तो खाते ही थे साथ-साथ ही हँसी-ठिठोली के साथ अपने बाल सखाओं को भी माखन खिलाते थे ।
अचरज की बात है इस माखन चोरी से वे ग्वालिनीयें आत्मीय रूप से बहुत आनंदीत होती थी जिनके यहॉं माखन चोरी होता था, वे ग्वालिनी बाहर से कृष्ण को डांटती थी किन्तु मन ही मन अपने भाग्य को सराहती थी कि कृष्ण उनके हाथों से बनाये माखन को खा रहे हैं ।
इससे अधिक अचरज की बात यह थी कि जिस ग्वालिन के घर माखन चोरी नहीं होता था, वह ग्वालिन बहुत दुखी हो जाती थी, उनके मन में एक हिनभावना आ जाता था कि उसकी सखी के यहॉं माखन चोरी हुआ किन्तु स्वयं उनके यहॉं नही हुआ और वे मन ही भगवान कृष्ण से प्रार्थना करने लगती कि हे माखन चोर, मेरे माखन का भी भोग लगाइये, मेरे घर को भी पावन कीजिये ।
इन्हीं भावनाओं को मैनें अपने इस काव्य भजन में पिरोने का प्रयास किया है-
संग लिये प्रभु ग्वाल बाल को, करते माखन चोरी ।
मेरो घर कब आयेंगे वो, राह तके सब छोरी ।
संग लिये प्रभु ग्वाल बाल को, करते माखन चोरी ।
मेरो घर कब आयेंगे वो, राह तके सब छोरी ।
सुना-सुना घर वो जब देखे, पहुँचे होले-होले ।
शिका तले सब ग्वाले ठाँड़े, पहुँचे खिड़की खोले ।।
ग्वाले कांधे लिये कृष्ण को, कृष्णा पकड़े डोरी ।
संग लिये प्रभु ग्वाल बाल को, करते माखन चोरी ।
माखन मटका हाथ लिये प्रभु, बिहसी माखन खाये ।
कछुक कौर ग्वालों पर डारे, ग्वालों को ललचाये ।।
माखन मटका धरे धरा पर, लूटत सब बरजोरी ।
संग लिये प्रभु ग्वाल बाल को, करते माखन चोरी ।
ग्वालन छुप-छुप मुदित निहारे, कृष्ण करे जब लीला ।
अंतस बिहसी डांट दिखावे, गारी देत चुटीला ।।
कृष्ण संग गोपी ग्वालन, करते जोरा-जोरी ।
संग लिये प्रभु ग्वाल बाल को, करते माखन चोरी ।