अनुष्टुप छंद एक वैदिक वार्णिक छंद है । इस छंद को संस्स्कृत में प्राय: श्लोक कहा जाता है या यों कहिये श्लोक ही अनुष्टुप छंद है । संस्कृत साहित्य में सबसे ज्यादा जिस छंद का प्रयोग हुआ है, वह अनुष्टुप छंद ही है ।
अनुष्टुप छंद का विधान-
अनुष्टुप छंद 4 चरणों एवं दो पदों का वार्णिक छंद हैं जिसके प्रत्येक चरणों में 8-8 वर्ण होते हैं । इन आठ वर्णो में गुरू-लघु का नियम होता है । संस्कृत में तुक की अनिवार्यता नहीं थी, हिन्दी में तुक का ज्यादा प्रचलन है इसलिये इस छंद में तुकांत को ऐच्छिक रखा गया चाहे रचनाकार तुकांत रखे चाहे तो न रखें । इसके नियम को निम्नवत रेखांकित किया जा सकता है-
विषम चरण – वर्ण क्रमांक पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ क्रमशः लघु, गुरू, गुरू, गुरू
सम चरण – वर्ण क्रमांक पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ क्रमशः लघु, गुरू, लघु, गुरू
तुकांतता-ऐच्छिक
अनुष्टुप छंद की परिभाषा अनुष्टुप छंद में-
आठ वर्ण जहां आवे, अनुष्टुपहि छंद है ।
पंचम लघु राखो जी, चारो चरण बंद में ।।
छठवाँ गुरु आवे है, चारों चरण बंद में ।
निश्चित लघु ही आवे, सम चरण सातवाँ ।।
अनुष्टुप इसे जानों, इसका नाम श्लोक भी ।
शास्त्रीय छंद ये होते, वेद पुराण ग्रंथ में ।।
-रमेश चौहान
अनुष्टुप छंद का उदाहरण-
राष्ट्रधर्म कहावे क्या, पहले आप जानिये ।
मेरा देश धरा मेरी, मन से आप मानिये ।।
मेरा मान लिये जो तो, देश ही परिवार है ।
अपनेपन से होवे, सहज प्रेम देश से ।।
सारा जीवन है बंधा, केवल अपनत्व से ।
अपनापन सीखाये, स्व पर बलिदान भी ।।
सहज परिभाषा है, सुबोध राष्ट्रधर्म का ।
हो स्वभाविक ही पैदा, अपनापन देश से ।।
अपनेपन में यारों, अपनापन ही झरे ।
अपनापन ही प्यारा, प्यारा सब ही लगे ।।
अपना दोष औरों को, दिखाता कौन है भला ।
अपनी कमजोरी को, रखते हैं छुपा कर ।।
अपने घर में यारों, गैरों का कुछ काम क्या ।
आवाज शत्रु का जो हो, अपना कौन मानता ।।
होकर घर का भेदी, अपना बनता कहीं ।
राष्ट्रद्रोही वही बैरी, शत्रु से मित्र भी बड़ा ।।
-रमेश चौहान
सरसी छंद एक बहुत ही लोकप्रिय छंद है। जहां भोजपुरी भाषाई क्षेत्र में सरसी छंद में होली गीत गाए जाते हैं वहीं छत्तीसगढ़ के राउत समुदाय द्वारा इसे एक लोक नृत्य लोकगीत के रूप में राउत दोहा के रूप में प्रयोग किया जाता है । इस प्रकार यह सरसी छंद लोक छंद के रूप में भी प्रचलित है ।
सरसी छंद का विधान
सरसी छंद चार चरणों का एक विषम मात्रिक छंद होता है । सरसी छंद में चार चरण और 2 पद होते हैं । इसके विषम चरणों में 16-16 मात्राएं और सम चरणों में 11-11 मात्राएं होती हैं । इस प्रकार सरसी छंद में 27 मात्राओं की 2 पद होते हैं । सरसी छंद का विषम चरण ठीक चौपाई जैसे 16 मात्रा की होती है और यह पूर्णरूपेण चौपाई के नियमों के अनुरूप होती है ।वहीं इसका सम चरण दोहा के सम चरण के अनुरूप होती है, दोहा के समय चरण जैसे ठीक 11 मात्रा और अंत में गुरु लघु ।
सरसी छंद की परिभाषा सरसी छंद में
चार चरण दो पद में होते, सोलह-ग्यारह भार । लोकछंद सरसी है प्रचलित, जन-मन का उपहार ।।
विषम चरण हो चौपाई जैसे, सम हो दोहा बंद । सोलह-ग्यारह मात्रा भार में, होते सरसी छंद ।।
होली गीत कहीं पर गाते, गाकर सरसी छंद । राउत दोहा नाम कहीं पर, लोक नृत्य का कंद ।।
सरसी छंद में होली गीत
चुनावी होली (सरसी छंद)
जोगीरा सरा ररर रा वाह खिलाड़ी वाह.
खेल वोट का अजब निराला, दिखाये कई रंग । ताली दे-दे जनता हँसती, खेल देख बेढंग ।। जोगी रा सरा ररर रा, ओजोगी रा सरा ररर रा
जिनके माथे हैं घोटाले, कहते रहते चोर । सत्ता हाथ से जाती जब-जब, पीड़ा दे घनघोर ।। जोगी रा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
अंधभक्त जो युगों-युगों से, जाने इक परिवार । अंधभक्त का ताना देते, उनके अजब विचार ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
बरसाती मेढक दिखते जैसे, दिखती है वह नार । आज चुनावी गोता खाने, चले गंग मजधार ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
मंदिर मस्जिद माथा टेके, दिखे छद्म निरपेक्ष। दादा को बिसरे बैठे, नाना के सापेक्ष ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
दूध पड़े जो मक्खी जैसे, फेक रखे खुद बाप । साथ बुआ के निकल पड़े हैं, करने सत्ता जाप ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
इक में माँ इक में मौसी, दिखती ममता प्यार । कोई कुत्ता यहाँ न भौके, कहती वह ललकार ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
मफलर वाले बाबा अब तो, दिखा रहे हैं प्यार । जिससे लड़ कर सत्ता पाये, अब उस पर बेजार ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
पाक राग में राग मिलाये, खड़ा किये जो प्रश्न । एक खाट पर मिलकर बैठे, मना रहे हैं जश्न ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
नाम चायवाला था जिनका, है अब चौकीदार । उनके सर निज धनुष चढ़ाये, उस पर करने वार ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
सरसी छंद में राउत दोहा
हो--------रे----
गौरी के तो गणराज भये(हे य)
(अरे्रे्रे) अंजनी के हनुमान (हो, हे… य)
कालिका के तो भैरव भये (हे… )
हो…….ये
कोशिल्या के राम हो (हे… य)
आरा्रा्रा्रा्रा्रा्रा
दारु मंद के नशा लगे ले (हे… य)
मनखे मर मर जाय (हे… य)
जइसे सुख्खा रुखवा डारा,
लुकी पाय बर जाय (हे… य)
हो्ये ...ह….
बात बात मा झगड़ा बाढ़य (हे… य)
(अरे् )पानी मा बाढ़े धान (हे… य)
तेल फूल मा लइका बाढ़े,
खिनवा मा बाढ़े कान (हे… य)
हो…….ओ..ओ
नान-नान तैं देखत संगी (हे… य)
झन कह ओला छोट (हे… य)
मिरचा दिखथे भले नानकुन,
देथे अब्बड़ चोट ।।(रे अररारारा)
आरा्..रा्रा्रा्रा्रा्रा
लालच अइसन हे बड़े बला (हे… य)
जेन परे पछताय रे (हे… य)
फसके मछरी हा फांदा मा,
जाने अपन गवाय रे (अररारारा)
सरसी छंद के कुछ उदाहरण
कानूनी अधिकार नहीं
है बच्चों का लालन-पालन, कानूनी कर्तव्य । पर कानूनी अधिकार नही, देना निज मंतव्य ।।
पाल-पोष कर मैं बड़ा करूं, हूँ बच्चों का बाप । मेरे मन का वह कुछ न करे, है कानूनी श्राप ।।
जन्म पूर्व ही बच्चों का मैं, देखा था जो स्वप्न । नैतिकता पर कानून बड़ा, रखा इसे अस्वप्न ।।
दशरथ के संकेत समझ तब, राम गये वनवास । अगर आज दशरथ होते जग, रहते कारावास ।।
नया दौर नया जमाना
नया जमाना नया दौर है, जिसका मूल विज्ञान। परंपरा को तौल रहा है, नया दौर का ज्ञान ।
यंत्र-तंत्र में जीवन सिमटा, जिसका नाम विकास । सोशल मीडिया से जुड़ा अब, जीवन का विश्वास ।
एक अकेले होकर भी अब, रहते जग के साथ । शब्दों से अब शब्द मिले हैं, मिले न चाहे हाथ ।
पर्व दिवस हो चाहे कुछ भी, सोशल से ही काम । सुख-दुख का सच्चा साथी, यंत्र नयनाभिराम ।
मोबाइल हाथों का गहना, टेबलेट से प्यार । कंप्यूटर अरु लैपटॉप ही, अब घर का श्रृंगार ।
राष्ट्र धर्म ही धर्म बड़ा है
राष्ट्र धर्म ही धर्म बड़ा है, राष्ट्रप्रेम ही प्रेम । राष्ट्र हेतु ही चिंतन करना, हो जनता का नेम ।
राष्ट्र हेतु केवल मरना ही, नहीं है देश भक्ति । राष्ट्रहित जीवन जीने को, चाहिए बड़ी शक्ति ।
कर्तव्यों से बड़ा नहीं है, अधिकारों की बात । कर्तव्यों में सना हुआ है, मानवीय सौगात ।
अधिकारों का अतिक्रमण भी, कर जाता अधिकार । पर कर्तव्य तो बांट रहा है , सहिष्णुता का प्यार ।
राष्ट्रवाद पर एतराज क्यों, और क्यों राजनीति । राष्ट्रवाद ही राष्ट्र धर्म है, लोकतंत्र की नीति ।।
राष्ट्रवाद ही एक कसौटी, होवे जब इस देश । नहीं रहेंगे भ्रष्टाचारी, मिट जाएंगे क्लेश ।। -रमेश चौहान
1. मन से काम 'रमेश' कर, कहते है हर कोय ।
मन से गिरि रज होत हैं, सागर कूप स होय ।।
2. कर्म भाग्य का मूल है, कर्म आपके हाथ ।
अपना कर्म 'रमेश' कर, मिले भाग्य का साथ ।।
3. गिर-गिर कर चलना सिखे, अटक-अटक कर बोल ।
डरना छोड़ 'रमेश' अब,, कोशिश कर दिल खोल ।।
4. खुले नयन के स्वप्न को, स्वप्न सलौने मान ।
कर साकार 'रमेश' अब,, मन में पक्का ठान ।।
5. सीख छुपा है भूल में, कर लो भूल सुधार ।
किए न यत्न 'रमेश' यदि, यही तुम्हारी हार ।।
6. स्वाद 'रमेशा' भूख में, नहीं स्वाद में भूख ।
भूख जीत की हो अगर, सुनें जीत की कूक ।।
7. अगर सफल होना तुम्हें, लक्ष्य डगर संधान ।
मन के हर भटकाव को, रोक रखो 'चौहान' ।।
8. अपनी रेखा दीर्घ कर, होगी उसकी छोट ।
अपना काम 'रमेश' कर, मन में ना रख खोट ।।
9. कोशिश करो 'रमेश' तुम, कोशिश से ना हार ।
कोशिश-कोशिश से तुम्हें, जीत करेगी प्यार ।।
10. होना सफल 'रमेश' यदि, बुनों योजना एक ।
मान योजना को राह तुम, चले चलों बिन ब्रेक ।।
जवानी के दोहे-
11. अरे 'रमेशा' युवक तुम, समझ युवक का अर्थ ।
जीवन की बुनियाद तुम, रित ना जावो व्यर्थ ।।
12. अगर 'रमेशा' तुम युवा, रखो जोश में होश ।
देह प्रेम के फेर में, रहो न तुम बेहोश ।।
13. काम काम के भेद को, ध्यान करो 'चाैहान' ।
काम वासना ही नहीं, काम कर्म की खान ।।
14. अगर 'रमेशा' पेड़ तुम, बचपन कली बलिष्ट ।
जवा-जवानी पुष्प है, मधु फल जरा विशिष्ट ।।
15. जीवन पथ यदि वृक्ष हो, आयु युवा है फूल ।
फूल वृक्ष से टूट कर, बन जाते हैं धूल ।।
पढ़-लिख कर मैंने क्या पाया ।
डिग्री ले खुद को भरमाया ।।
काम-धाम मुझको ना आया ।
केवल दर-दर भटका खाया ।।
फेल हुये थे जो सहपाठी ।
आज धनिक हैं धन की थाती ।
सेठ बने हैं बने चहेता ।
अनपढ़ भी है देखो नेता ।।
श्रम करने जिसको है आता ।
दुनिया केवल उसको भाता ।।
बचपन से मैं बस्ता ढोया ।
काम हुुुुनर मैं हाथ न बोया ।।
ढ़ूढ़ रहा हूँ कुछ काम मिले ।
दो पैसे से परिवार खिले ।।
पढ़ा-लिखा मैं तनिक अनाड़ी ।
घर में ना कुछ खेती-बाड़ी ।।
दुष्कर लागे जीवन मेरा ।
निर्धनता ने डाला डेरा ।।
दो पैसे अब मैं कैसे पाऊँ ।
पढ़ा-लिखा खुद को बतलाऊँ ।।
-रमेश चौहान
चीं-चीं चिड़िया चहकती, मुर्गा देता बाँग ।
शीतल पवन सुगंध बन, महकाती सर्वांग ।।
पुष्पकली पुष्पित हुई, निज पँखुडियाँ प्रसार ।
उदयाचल में रवि उदित, करता प्राण संचार ।।
जाग उठे हैं नींद से, सकल सृष्टि संसार ।
जागो जागो हे मनुज, बनों नहीं लाचार ।।
बाल समय यह दिवस का, अमृत रहा है बाँट ।
आँख खोल कर पान कर, भरकर अपनी माँट ।।
(माँट-मिट्टी का घड़ा)
वही अभागा है जगत, जो जागे ना प्रात ।
दिनकर दिन से कह रहा, रूग्ण वही रह जात ।।
सुबह सवेरे जागिए, जब जागे हैं भोर ।
समय अमृतवेला मानिए, जिसके लाभ न थोर ।।
जब पुरवाही बह रही, शीतल मंद सुगंध ।
निश्चित ही अनमोल है, रहिए ना मतिमंद ।।
दिनकर की पहली किरण, रखता तुझे निरोग ।
सूर्य दरश तो कीजिए, तज कर बिस्तर भोग ।।
दीर्घ आयु यह बांटता, काया रखे निरोग ।
जागो जागो मित्रवर, तज कर मन की छोभ ।।
-रमेश चौहान
आज अचानक
मैंने अपने अंत: पटल में झांक बैठा
देखकर चौक गया
काले-काले वह भी भयावह डरावने
दुर्गुण फूफकार रहे थे
मैं खुद को एक सामाजिक प्राणी समझता था
किंतु यहां मैंने पाया
समाज से मुझे कोई सरोकार ही नहीं
मैं परिवार का चाटुकार
केवल बीवी बच्चे में भुले बैठा
मां बाप को भी साथ नहीं दे पा रहा
बीवी बच्चों से प्यार
नहीं नहीं यह तो केवल स्वार्थ दिख रहा है
मेरे अंतस में
-रमेश चौहान
आयुष प्रभु धनवंतरी, हमें दीजिए स्वास्थ्य ।
आज जन्मदिन आपका, दिवस परम परमार्थ ।।
दिवस परम परमार्थ, पर्व यह धनतेरस का ।
असली धन स्वास्थ्य, दीजिए वर सेहत का ।।
धन से बड़ा "रमेश", स्वास्थ्य पावन पीयुष ।
आयुर्वेद का पर्व, आज बांटे हैं आयुष ।।
नरकचतुर्दशी की शुभकामना-
शक्ति-भक्ति प्रभु हमें दीजिये (सार छंद)-
पाप-पुण्य का लेखा-जोखा, प्रभुवर आप सरेखे ।
सुपथ-कुपथ पर कर्म करे जब, प्राणी प्राणी को देखे ।
शक्ति-भक्ति प्रभु हमें दीजिये, करें कर्म हम जगहित ।
प्राणी-प्राणी मानव-मानव, सबको समझें मनमित ।।
दीपावली की शुभकामना-
ज्ञान लौ दीप्त होकर (रूपमाला छंद)-
दीप की शुभ ज्योति पावन, पाप तम को मेट ।
अंधियारा को हरे है, ज्यों करे आखेट ।
ज्ञान लौ से दीप्त होकर, ही करे आलोक ।
आत्म आत्मा प्राण प्राणी, एक सम भूलोक ।।
दीप पर्व पावन, लगे सुहावन (त्रिभंगी छंद)-
दीप पर्व पावन, लगे सुहावन, तन मन में यह, खुशी भरे ।
दीपक तम हर्ता, आभा कर्ता, दीन दुखी के, ताप हरे ।।
जन-जन को भाये, मन हर्शाये, जगमग-जगमग, दीप करे ।
सुख नूतन लाये, तन-मन भाये, दीप पर्व जब, धरा भरे ।।
बोल रहे हैं दीयें (सार छंद)-
जलचर थलचर नभचर सारे,, शांति सुकुन से जीये ।
प्रेमभाव का आभा दमके, बोल रहे हैं दीये ।।
राग-द्वेश का घूप अंधेरा, अब ना टिकने पाये ।
हँसी-खुशी से लोग सभी अब, सबको गले लगाये ।।
भाईदूज की शुभकामना-
पावन पर्व भाईदूज (राधिका छंद)-
पावन पर्व भाईदूज, दुनिया रिझावे ।
भाई-बहनों का प्यार, जग को सिखावे ।।
दुखिया का दोनों हाथ, बहन का भ्राता ।
यह अति पावन संबंध, जग को सुहाता ।।
दीप ऐसे हम जलायें, जो सभी तम को हरे ।
पाप सारे दूर करके, पुण्य केवल मन भरे ।।
वक्ष उर निर्मल करे जो, सद्विचारी ही गढ़े ।
लीन कर मन ध्येय पथ पर, नित्य नव यश शिश मढ़े ।
कीजिये कुछ काज ऐसा, देश का अभिमान हो ।
अश्रु ना छलके किसी का, आज नव अभियान हो ।
सीख दीपक से सिखें हम, दर्द दुख को मेटना ।
मन पुनित आनंद भर कर, निज बुराई फेेेकना ।।
शुभ विचारी लोग होंवे, मानवी गुण से भरे ।
भद्र होवे हर सदन अब, मान महिला का करे ।
काम सबके हाथ में हो, भाग्य का उपकार हो ।
मद रहे ना मन किसी के, एकता संस्कार हो ।।
नाम होवे देश का अब, देशप्रेमी लोग हो ।
आपको अब सब खुशी दे, देश हित सब भोग हो ।
पर्व यह दीपावली का, हर्ष सबके मन भरे ।
कोप तज कर मोह तज कर, प्रीत सबसे सब करे
दोहे-
नाना खुशी बरसावे, जगमग करते दीप ।
दीप पर्व की कामना, हर्षित हो मन मीत ।।
अंतर मन उजास भरे, जगमग करते दीप ।
जीवन में सुख शांति दे, दीप पर्व मन मीत ।।
कुंडलियां छंद एक विषम मात्रिक छंद है । जिसमें 6 पद 12 चरण होते हैं । यद्यपि सभी 6 पदों में 24-24 मात्राएं होती हैं किन्तु पहले दो पदों में 13,11 यति से चौबीस मात्राएं होती हैं जबकि शेष चारों पदों में 13,11 यति पर चौबीस मात्राएं होती हैं । वास्तव में कुंडलियां छंद दोहा और रोला दो छंदों के मेल से बनता है । कुंडिलयां में पहले दोहा फिर रोला आता है । दोहा में 13,11 के यति से 24 मात्राएं होती हैं जबकि रोला में 11,13 यति पर 24 मात्राएं होती हैं ।
कुण्डलियां छंद में कुण्डलियां छंद की परिभाषा-
दोहा रोला जोड़कर, रच कुण्डलियां छंद ।
सम शुरू अंतिम शब्द हो, प्रारंभ अंतिम बंद ।।
प्रारंभ अंतिम बंद, शब्द तो एकही होते ।
दोहा का पद अंत, प्रथम पद रोला बोते ।।
तेरह ग्यारह भार, छंद रोला में सोहा ।
ग्यारह तेरह भार, धरे रखते हैं दोहा ।।
कुण्डलियां की विशेषताएं-
उपरोक्त परिभाषा से कुंडलियां के निम्न लक्षण या विशेषताएं कह सकते हैं-
कुण्डलियां में 6 पद अर्थात 6 पंक्ति होती है ।
पहले दो पद दोहा के होते हैं ।
शेष चार पद रोला के होते हैं ।
दोहा का अंतिम (चौथा) चरण ज्यों का त्यों रोला का प्रथम चरण होता है ।
कुण्डलियां के पांचवें पद के पहले चरण में कवि का नाम आता है ।
कुण्डलियां जिस शब्द या शब्द समूह से प्रारंभ हुआ है उसी से उसका अंत होता है ।
दोहा छंद-
दोहा एक विषम मात्रिक छंद है । इसमें दो पद और चार चरण होते हैं । इनके विषम चरणों 13 मात्राएं और सम चरणों 11 मात्राएं कुल 24 मात्राएं होती हैं । चारों चरणों की ग्यारहवीं मात्रा निश्चित रूप से लघु होना चाहिये । विषम चरण का प्रारंभ जगण अर्थात लघु-गुरू-लघु से नहीं किया जाता है । सम चरण का अंत गुरू-लघु से समतुक से होता है ।
दोहा छंद की परिभाषा दोहा छंद में –
चार चरण दो पंक्ति में, होते दोहा छंद ।
तेरह ग्यारह भार भर, रच लो हे मतिमंद ।।
ग्यारहवीं मात्रा होय जी, निश्चित ही लघु भार ।
आदि जगण तो त्याज्य है, आखिर गुरू-लघु डार ।
कुण्डलियां छंद में दोहा का गुणधर्म-
भरिये दोहा छंद में, ग्यारह तेरह भार ।
चार चरण दो पंक्ति में, आखिर गुरू लघु डार ।।
आखिर गुरू लघु डार, चरण सम ग्यारह होवे ।
विशम चरण में भार अधि, भार तेरह को ढोवे ।
सुन लो कहे ‘रमेश’, ध्यान धरकर मन धरिये ।
सभी ग्यारवीं भार, मात्र लघु मात्रा भरिये ।।
दोहा छंद की विशेषताएं-
दोहा छंद में चार चरण और दो पद होते हैं ।
पहले और तीसरे चरण को विषम चरण कहते हैं, दूसरे और चौथे चरण को समचरण कहते हैं ।
विषम चरण में 13-13 मात्राएं होती हैं ।
सम चरण में 11-11 मात्राएं होती हैं ।
चारों चरणों की ग्यारहवी मात्रा निश्चित रूप से लघु होना चाहिये ।
विषम चरण के आदि में जगण वर्जित है ।
सम चरण का अंत गुरू-लघु से होना अनिवार्य है ।
सम चरण के अंत के गुरू-लघु का समतुकांत होना भी अनिवार्य है ।
रोला छंद-
रोला छंद भी एक विषम मात्रिक छंद है । इसमें आठ चरण और चार पद होते हैं । विषम चरणों में 11-11 मात्राएं और सम चरणों में 13-13 मात्राएं होती हैं । दोहा के मात्रा के उलट मात्रा रोला में होने के कारण कई लोग इसे दोहा का विलोम भी कह देते हैं जो सही नहीं है । दोहा का विलोम सोरठा होता है रोला नहीं । दोहा के चरणों को उलट देने से सोरठा बनता है ।
रोला छंद में रोला छंद की परिभाषा-
आठ चरण पद चार, छंद रोला में भरिये ।
ग्यारह तेरह भार, विषम सम चरणन धरिये ।
विषम चरण का अंत, भार गुरू-लघु ही आवे ।
त्रिकल भार सम आदि, अंत चौकल को भावेे।।
कुण्डलियां छंद में रोला छंद का गुणधर्म-
रोला दोहा के उलट, ग्यारह तेरह भार ।
भेद चरण में होत है, आठ चरण पद चार ।
आठ चरण पद चार, छंद रोला में भावे ।
विषम चरण के अंत, दीर्घ लघु निश्चित आवे ।।
सुन लो कहे ‘रमेश’, त्रिकल सम के शुरू होला ।
चौकल सम के अंत, बने तब ना यह रोला ।।
रोला छंद की विशेषताएं-
रोला में चार पद और आठ चरण होते हैं ।
विषम चरणों 11-11 मात्राएं और सम चरणों में 13-13 मात्राएं होती हैं ।
विषम चरण का अंत गुरू-लघु होना चाहिये । कहीं-कहीं विषम चरण के अंत में नगण भी देखा गया है किन्तु गुरू लघु को श्रेष्ठ माना जाता है ।
सम चरण का प्रारंभ त्रिकल अर्थात 3 मात्रा भार से होना चाहिये ।
सम चरण का अंत चौकल अर्थात चार मात्रा से होना चाहिये । अंत में दो गुरू को श्रेष्ठ माना जाता है ।
अंत के इस चौकल में समतुकांतता होना चाहिये ।
कुण्डलियां छंद की रचना-
पहले दोहा लेना-
भारत मॉं वीरों की धरा, जाने सकल जहान ।
मातृभूमि के लाड़ले, करते अर्पण प्राण ।।
दोहा के अंतिम चरण का रोला का प्रथम चरण होना-
उपरोक्त दोहा में अंतिम चरण ‘करते अर्पण प्राण’ आया है इसलिये रोला इसी से शुरू होगा-
करते अर्पण प्राण, पुष्प सम शिश हाथ धरे ।
बन शोला फौलाद,शत्रु दल पर वार करे ।
सुनलो कहे ‘रमेश‘, देश में लिखे इबारत ।
इस धरती का नाम, पड़ा क्यों आखिर भारत ।।
पांचवें पद में कवि का नाम आना-
करते अर्पण प्राण, पुष्प सम शिश हाथ धरे ।
बन शोला फौलाद,शत्रु दल पर वार करे ।
सुनलो कहे ‘रमेश‘, देश में लिखे इबारत ।
इस धरती का नाम, पड़ा क्यों आखिर भारत ।।
दोहा के पहले शब्द या शब्द समूह से रोला का अंत होना-
दोहा का प्रथम शब्द ‘भारत’ है, इसलिये रोला का अंत ‘भारत’ से ही होगा ।
करते अर्पण प्राण, पुष्प सम शिश हाथ धरे ।
बन शोला फौलाद,शत्रु दल पर वार करे ।
सुनलो कहे ‘रमेश‘, देश में लिखे इबारत ।
इस धरती का नाम, पड़ा क्यों आखिर भारत ।।
संपर्ण कुण्डलियां-
भारत मॉं वीरों की धरा, जाने सकल जहान ।
मातृभूमि के लाड़ले,करते अर्पण प्राण ।।
करते अर्पण प्राण, पुष्प सम शिश हाथ धरे ।
बन शोला फौलाद,शत्रु दल पर वार करे ।
सुनलो कहे ‘रमेश‘, देश में लिखे इबारत ।
इस धरती का नाम, पड़ा क्यों आखिर भारत।।
सुबह सवेरे जागिए, जब जागे हैं भोर ।
समय अमृतवेला मानिए, जिसके लाभ न थोर ।।
जब पुरवाही बह रही, शीतल मंद सुगंध ।
निश्चित ही अनमोल है, रहिए ना मतिमंद ।।
दिनकर की पहली किरण, रखता तुझे निरोग ।
सूर्य दरश तो कीजिए, तज कर बिस्तर भोग ।।
दीर्घ आयु यह बांटता, काया रखे निरोग ।
जागो जागो मित्रवर, तज कर मन की छोभ ।।
दोहे चिंतन के-
शांत हुई ज्योति घट में, रहा न दीपक नाम ।
अमर तत्व निज पथ चला, अमर तत्व से काम ।।
धर्म कर्म धर्म, कर्म का सार है, कर्म धर्म का सार ।
करें मृत्यु पर्यन्त जग, धर्म-कर्म से प्यार ।।
दुनिया भर के ज्ञान से, मिलें नहीं संस्कार ।
अपने भीतर से जगे, मानवता उपकार ।।
डाली वह जिस पेड़ की, उससे उसकी बैर ।
लहरायेगी कब तलक, कबतक उसकी खैर ।
जाति मिटाने देश में, अजब विरोधाभास ।
जाति जाति के संगठन, करते पृथ्क विलास ।।
सकरी गलियां देखकर, शपथ लीजिये एक ।
बेजाकब्जा छोड़कर, काम करेंगे नेक ।।
शिक्षक निजि स्कूल का, दीन-हीन है आज ।
भूखमरी की राह पर, चले चले चुपचाप ।।