1.नम्रता और स्नेहार्द्र वक्तृता केवल यही मनुष्य के आभूषण हैं और कोई नहीं ।
2. अधर्म द्वारा एकत्र की हुई सम्पत्ती की अपेक्षा तो सदाचारी पुरूष की दरिद्रता कहीं अच्छी है ।
3. जिन कर्मो में असफलता अवश्यसंभावी है, उसे संभव कर दिखाना और विध्न-बाधाओं से न डर कर अपने कर्तव्य पर डटे रहना प्रतिभा शक्ति के लिये दो प्रमुख सिद्धांत हैं ।
4. लोगों को रूलाकर जो सम्मपत्ती इकट्ठी की जाती है, वह क्रन्दन ध्वनि के साथ ही विदा हो जाती है, मगर जो धर्म द्वारा संचित की जाती है, वह बीच में ही क्षीण हो जाने पर भी अंत में खूब फलती-फूलती है ।
5. यदि तुम्हारे विचार शुद्ध और पवित्र है और तुम्हारी वाणी में सहृदयता है, तो तुम्हारी पाप वृत्ति का स्वयमेव क्षय हो जायेंगे ।
6. सत्पुरूषों की वाणी ही वास्तव में सुस्निग्ध होती है । क्योंकि दयार्द्र कोमल और बनावट से रहित होती है ।
7. लक्ष्मी ईर्ष्या करने वालों के पास नहीं रह सकती । वह उसको अपनी बड़ी बहन दरिद्रता के हवाले कर देती है ।
8. मीठे शब्दों के रहते हुए भी जो मनुष्य कड़वे शब्द का प्रयोग करता है, वह मानों पक्के फल को छोडकर कच्चा फल खाना चाहता है ।
गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस को ‘छहो शास्त्र सब ग्रंथन का रस’ कहा गया है अर्थात रामचरित मानस एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें सभी वेदों, पुराणों, एवं शास्त्रों का निचोड़ है । जीवन के हर मोड़ के लिये यह एक पदथप्रदर्शक के रूप में हमें दिशा देती है । इसी रामचरित मानस के प्रथम सोपान बालकाण्ड के दोहा संख्या 6 से दोहा संख्या 7 साधु असाधु में भेद और कुसंग और सुसंग का व्यापक व्याख्या है । आज संगति पर विचार समिचिन लग रहा है ।
‘हानि कुसंग सुसंगति लाहू’ – गोस्वामी तुलसीदास
जड़ चेतन गुन दोष मय-
रामचरित मानस के प्रथम सोपान बालकाण्ड़ के दोहा संख्या 6 में गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं-
करतार अर्थात ब्रम्हा ने विश्व को गुण और दोष युक्त जड़ और चेतन की रचना की है । जो लोग संत होते हैं, वे हंस जैसे केवल दूध रूपी गुण को ग्रहण करते हैं और पानी रूपी बिकार अर्थात दोष को छोड़ देते हैं ।
गुणार्थ-
‘बिधि प्रपंच गुन अवगुन साना’ विधाता ने माया में गुण और अवगुण मिला दिया है । अब इस गुण और अवगुण के मिश्रण गुण को पृथ्क करने का सामर्थ्य तो केवल संत में है । संत ही हैं जो आम जन को इस माया से गुण को अलग करके देता है ।
यहॉं संत को परिभाषित किया गया है कि संत वहीं हैं जो गुण अवगुण युक्त माया से केवल गुण को पृथ्क करने का सामर्थ्य रखता है ।
अस बिबेक जब देइ बिधाता-
अस बिबेक जब देइ बिधाता । तब तजि दोष गुनहिं मनु राता
अर्थ-
ऐसा विवेक, ऐसी बुद्धि जब विधाता दें, तभी दोष छोड़ कर मन गुण में रत रह सकता है ।
गुणार्थ-
ऐसा विवेक अर्थात हंस जैसा विवेक गुण और अवगुण को अलग करने की सामर्थ्ययुक्त बुद्धि एक तो विधाता दे सकते हैं दूसरा सत्संग से प्राप्त किया जा सकता है । यदि आप स्वयं हंस नहीं है तो दूध और पानी को अलग नहीं कर सकते किन्तु आप यदि इनका बिलगाव चाहते हैं तो हंस का सहयोग लेना ही होगा । ठीक इसी प्रकार यदि हम माया से गुण दोष को अलग नहीं कर सकते तो हंस रूप संत का संतसंग करके गुण दोष को पृथ्क कर सकते हैं ।
काल सुभाउ करम बरिआई-
काल सुभाउ करम बरिआई । भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई
अर्थ-
काल अर्थात समय के स्वभाव से और कर्म की प्रबलता से प्रकृति अर्थात माया के वशीभूत होकर भले लोग भी भलाई करने से चुक जाते हैं ।
गुणार्थ-
‘काल, करम गुन सुभाउ सबके सीस तपत’ सभी प्राणियों शिश पर पर काल और कर्म का प्रभाव उपद्रव करते फिरता है इस प्रभाव से एक आवरण पड़ जाता है जिससे भले लोग भी भलाई करने से चूक जाते हैं अर्थात गुण और अवगुण में भेद नहीं कर सकते । इसका सरल उपाय गोस्वामीजी स्वयं देते हैं- ‘काल धर्म नहिं व्यापहिं ताहीं । रघुपति चरन प्रीति अति जाहीं” काल और कर्म के प्रभाव से जो आवरण बन जाता है उस आवरण को केवल और केवल रघुपति के चरण पर प्रीति रखने से नष्ट किया जा सकता है ।
काल और कर्म के प्रभाव जो भलाई करने से चूक जाते हैं, इस चूक को हरिजन अर्थात ईश्वर भक्त सुधार लेते हैं । अपने चूक को सुधारते हुये ऐसे लोग दुख और दोष का दमन करके विमल यश को देते हैं ।
गुणार्थ-
ल सुधार की शक्ति केवल हरिभक्त के पास है । गोस्वामीजी कहते हैं-‘नट कृत कपट बिकट खगराया । नट सेवकहिं न ब्यापहिं माया’ अर्थात इस सृष्टि के नट अर्थात ईश्वर द्धारा बनाया गया माया विकट है, यदि उस नट की सेवारत रहा जाये तो यह विकटता उसे नहीं व्यापता । काल कर्म का प्रभाव तो होगा उसका भोग देह को भी होगा किन्तु मन को नहीं क्योंकि -‘मन जहँ जहँ रघुबर बैदेही । बिनु मन तन दुख सुख सुधि केहि’ जब मन ईश्वर भक्ति में लगा हो तो बिना मन के तन को होने वाले सुख दुख की अनुभूती ही किसे होगी ?
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू-
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू । मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू
अर्थ-
खल भी अच्छी संगती पाकर भलाई करने लगते हैं किन्तु उनके मन का स्वभाव मिटता नहीं जैसे ही वह कुसंग के प्रभाव में आता है भलाई करना छोड़ देता है ।
गुणार्थ-
संत और खल दोनों का स्वभाव स्थिर रहता है किन्तु दोनों में एक भेद है संत भलाई करने के गुण को किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ता वहीं खल परिस्थिति के अनुसार बदल जाते हैं जब सुसंग का प्रभाव होता है वह भलाई करने लगते किन्तु कुसंग के प्रभाव में आते ही अपने मूल स्वभाव के अनुसार भलाई करना छोड़ देता है ।
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ-
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ । बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ
उघरहिं अंत न होइ निबाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू
अर्थ-
दुनिया में जो बंचक अर्थात कपटी हैं सुंदर वेष अर्थात साधु के वेष को धारण करने के कारण केवल वेष के प्रभाव से पूजे जाते हैं । जो कपटी केवल सुंदर वेष के कार पूजे जाते हैं अंत उनका कपट खुल ही जाता है जिस प्रकार हनुमान के पथ के बाधा बने कपटी साधु कालनेमी, सीताहरण के साधु बने रावण और अमृतपान करने दैत्य राहू का कपटी देव रूप का भेद खुल गया ।
गुणार्थ-
छद्म का आज नहीं कल पर्दाफााश होना ही होना है । इसलिये बनावटी चरित्र का दिखावा न करें अपितु अपने चरित्र में परिवर्तन लावें । यह परिवर्तन केवल सुसंग अच्छे लोगों की संगति में बने रहने से ही संभव है । अपने मानसिक शक्ति में व;द्धि करने के लिये अपने आत्मबल को जागृत करने के लिये सही संगत का चयन कीजिये ।
कुसंग से हानि और सुसंग से लाभ होता है । इस बात को सभी कोई जानते हैं हमारे वेदों ने भी इसी बात का उपदेश किया है ।
गुणार्थ-
वेदों द्वारा अनुमोदित इस तथ्य को सभी जानते हैं कि कुसंग से केवल नुकसान ही होता और सुसंग केवल लाभ ही लाभ । जानते तो सभी कोई हैं किन्तु इस बात अंगीकार करने वाल विरले ही हैं । विरले ही लोग साधु होते हैं, इन्हें ही संत की संज्ञा दी जाती है ।
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा-
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलइ नीच जल संगा
अर्थ-
तुलसीदास धूल की संगति का उदाहरण देते हुये कहते हैं कि धूल वही किन्तु संगति के प्रभाव से उसका महत्व अलग-अलग हो जाता है । जब धूल वायु के संपर्क में आता है तो वायु के साथ मिलकर आकाश में उड़ने लगता है किन्तु जब वही धूल जल की संगति करता है किचड़ बन कर पैरों तले रौंदे जाते हैं ।
गुणार्थ-
जब धूल जल के साथ मिलकर कीचड़ बन जाता है तो उस कीचड़ को पवन उड़ा नहीं सकता उसी प्रकार कुसंगति के अधिक प्रभाव हो जाने पर संत उस मूर्ख को नहीं सुधार सकता-
'फूलइ फरइ न बेत, जदपि सुधा बरसइ जलद ।
मूरूख हृदय न चेत, जो गुरू मिलहिं बिरंचि सम ।।
साधु असाधु सदन सुकसारी-
साधु असाधु सदन सुकसारी ।सुमरहि रामु देहिं गनिगारी
अर्थ-
साधु और असाधु दोनों घरों के पालतू तोता में भी संगति का अंतर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । साधु के सानिध्य का तोता राम-राम बोलता है जबकि असाधु के संगत वाला तोता गिन-गिन कर गालियां देता है ।
गुणार्थ-
संगति का प्रभाव वृहद और अवश्यसंभावी होता है । जिस प्रकार गिरगिट परमौसम और परिवेश का यह प्रभाव होता है उसके शरीर का रंग बदल जाता है ।
‘संत संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।’ संतो का सतसंग करना स्वर्ग दिला सकता है वहीं कामी का संग करना संसार रूपी भव सागर डूबो देती है ।
धूम कुसंगति कारिख होई-
धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु सोई
सोइ जल अलन अनिल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता
अर्थ-
धुँआ की संगति को परख कर देखिये वहीं धुँआ कुसंगति के प्रभाव से धूल-धूसरित होकर कालिख बन अपमानित होता है तो वही धुँआ सत्संगति के प्रभाव से स्याही बन पावन ग्रंथों में अंकित होकर सम्मानित होता है । वहीं धुऑं जल अग्नि और वायु के संपर्क में आकर मेघ बना जाता है और यही मेघ दुनिया के जीवनदाता कहलाता है ।
गुणार्थ-
संगति व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व और कर्म को प्रभावित कर सकता है । कुसंग के प्रभाव से जहां वह जगत के लिये भार होता है वहीं सुसंग के प्रभाव जगत के लिये मंगलकारी ।
ग्रह भेषज जल पवन पट-
ग्रह भेषज जल पवन पट, पाइ कुजोग सुजोग ।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ।।7।।
अर्थ-
ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र संगति के कारण भले और बुरे हो जाते हैं । ज्योतिषशास्त्र के अनुसार कुछ ग्रह शुभ और कुछ ग्रह अशुभ होते हैं किन्तु द्वादश भाव में विचरण करते हुये किसी स्थान शुभ परिणाम देते हैं तो किसी स्थान पर अशुभ परिणाम देते हैं । आयाुर्वेद के औषधि के लिये पथ्य-अपथ्य निर्धारित हैं । यदि पथ्य पर औषधि अच्छे परिणाम देते हैं जबकि अपथ्य से बुरे परिणाम हो सकते हैं । वायु सुंगंध के संपर्क में होने पर सुवासित और दुर्गंध के संपर्क में होने सडांध फैलाता है । इसी प्रकार शालिनता के संपर्क में वस्त्र पूज्य हो जाते हैं जबकि अश्लिलता के संपर्क से तृस्कृत होते हैं ।
गुणार्थ-
एक वस्तु के दूसरे वस्तु के संपर्क में आने पर या एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आने पर एक दूसरे के गुणों में सकारात्मक या नकारात्मक परिवर्तन अवश्यसंभावी हैं । अपने अंदर सकारात्मक परिवर्त करने लिये ऐसे परिवेश, ऐसे मित्रों या ऐसे सहचर्यो का चयन करना चाहिये जिससे अच्छे विचार जागृत हों, अच्छे कर्मो को करने की प्रेरणा मिले ।
मानवता, धर्म से भिन्न नहीं अपितु धर्म का अभिन्न अंग है
धर्म
धर्म एक व्यापक शब्द है जिसके लिये कहा गया है-‘धारयति इति धर्म:’ अर्थात जिसे धारण किया जाये उसे धर्म कहते हैं । अब सवाल उठता है इसे कहां और कैसे धारण किया जाये । धर्म का धारण करने का स्थान अंत:करण है । इसे अंत:करण में धारण किया जाता है । विचारों को व्यवहारिक रूप से जिया जाता है । धर्म कोई पूजा की वस्तु न होकर जीवन जीने की शैली का नाम है ।
क्या करें और क्या न करें का निर्धारक है धर्म-
जीवन में हमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये इस बात का निर्धारण कैसे किया जाये ? इस संकट का निदान केवल और केवल धर्म ही करता है । धर्म कर्म का निर्धारक है और कर्म जीवन और जीवन के बाद भाग्य का निर्धारक है । ‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करही सो तस फल चाखा’ और ‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते’ का उद्घोष हमें कर्म करनी की शिक्षा देती है । लेकिन कर्म कैसे हो तो धर्म के अनुकूल ।
समय और व्यक्ति के अनुरूप धर्म भिन्न-भिन्न हो सकता है-
धर्म अटल होते हुये भी लचिला है । प्रत्येक प्राणी का धर्म समय विशेष पर भिन्न-भिन्न होता है । यही कारण है कि जब कोई व्यक्ति किसी समय क्या करें या क्या न करें इसका फैसला नहीं कर पाता तो कहता है – ‘धर्म संकट है।’ यहां धर्म संकट है, इसका अर्थ यह कदापि नहीं होता कि धर्म को कोई संकट है । इसका अभिप्राय तो यह होता है कि उस व्यक्ति को संकट है । उसके संकट है किस धर्म का पालन करें । करने योग्य कर्म को धर्म ने पुण्य की संज्ञा दी है और न करने योग्य कर्म को पाप कहा गया है ।
धर्म कर्म करने की वरियता निर्धारित करता है-
किसी की हत्या करना धर्म के अनुसार पाप है और किसी की प्राण रक्षा करना पुण्य । किसी समय किसी व्यक्ति के प्राण रक्षा करने के लिये किसी की हत्या करना पड़े तो वह क्या करें ? यही धर्म संकट है । धर्म कर्म करने की वरियता निर्धारित करता है । इसलिये समय विशेष पर व्यक्ति विशेष का धर्म अलग-अलग होता है ।
धर्म पूजा पद्यति न होकर कर्म करने का उद्घोषक है-
समाज में यह भ्रांति देखने को मिलता है कि पूजा पद्यति का नाम ही धर्म है । यह कतई सत्य नहीं है । धर्म की सही व्याख्या समझनी है हमें हमें गीता का अध्ययन करना चाहिये । गीता पूजा करने की नहींं कर्म करने की शिक्षा देेेेेेेेती है । हमें धार्मिक ग्रंथोंं का अध्ययन इसिलये करनाचाहिये ताकि हम धर्म को अच्छे से समझ सकें । यहां धर्म को समझने से तात्पर्य केवल इतना है कि हमें उस कर्म का ज्ञान होना चाहिये जिसे परिस्थिति और समय के अनुरूप करना चाहिये । क्योंकि धर्म कर्म करने का उद्घोषक है ।
मानवता-
मानवता शब्द आज कल ट्रेण्ड कर रहा है । अपने आप को बुद्धिजीवी समझने वाले लोग अपने आप को को धर्म रहित मानवतावादी घोषित करते हुये मानवता को धर्म से भिन्न दिखाने की कुचेष्टा करते हैं जिस प्रकार हमारे देश की राजनीति में राजनेता अपने आप को धर्मनिरपेक्ष दिखाने की कुचेष्टा करते हैं । मानवता शब्द का व्यापक से व्यापक अर्थ केवल इतना ही है कि ‘ मनुष्य का जीवन मनुष्य के लिये हो ।’ जबकि धर्म केवल मानव ही नहीं प्राणीमात्र की सेवा का संदेश देती है ।
मानवता, धर्म से भिन्न नहीं धर्म का अभिन्न अंग-
मानवता कहता मनुष्यों की सेवा करो, ऊॅँच-नीच के भेद-भाव रहित, मनुष्यों का सहयोग करो । धर्म का कथन है ऊॅँच-नीच के भेद-भाव रहित प्राणी-मात्र की रक्षा और सेवा करो । तो क्या मनुष्य प्राणी नहीं है जिसके धर्म कहती है । मानवता के बिना धर्म और धर्म के बिना मानवता अपने-अपने अर्थ ही खो देंगे । मानवता धर्मरूपी तरूवर की शाखायें मात्र हैं ।
मानवता को धर्म से भिन्न दिखाने का प्रयास क्यों ?
मानवता को धर्म से भिन्न दिखाने के केवल और केवल एक ही कारण है मानसिक दासता । मुगल शासन से लेकर अंग्रेज शासन तक सभी ने हमारे संस्कार और शिक्षानीति को नष्ट करने का भरपूर प्रयास किया इसी प्रयास की परिणिति आज तक हमें मानसिक रूप से दास बनाये हुयें हैं । आजादी के पश्चात छद्म धर्मनिरपेक्षता इन मानसिक दासों को जंजीर में कैद कर लिये हैं । धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किसी धर्म विशेष की बुराई को ताकते रहते हैं और ऑंख दिखाते रहते है, वहींं यही लोग दूसरें धर्म की बुराई न दिखें इसलिये ऑंख मूंद लेते हैं ।
धर्म नहीं धर्म के अनुपालक बुरा हो सकते हैं-
धर्म केवल मानव ही नहीं प्राणीमात्र की सेवा का संदेश देती है, ये अलग बात है कि अनुपालक कितना अनुपालन करते हैं, इसमें अनुपालक दोषी हो सकता है, धर्म कदापि नहीं । मानवतावादी का व्यवहारिक पक्ष भी कोई दोष रहित है ऐसा भी नहीं है इसका अर्थ मानवतावाद बुरा है?? नहीं, कदापि नहीं । तो धर्म बुरा कैसे? धर्म में बुराई कैसी ? सारी बुराई तो अनुनायी, अनुपालकों की है । यदि कोई पूजा पद्यती को धर्म समझता है तो उसे धर्म को और समझने की जरुरत है ।
धर्म तो व्यापक है साधारण कथायें ही हमें समता का संदेश देती हैं-
हमारे अराध्य राम द्वारा शवरी का जुठन खाना, कृष्ण का ग्वालों का जूठन खाना, कृष्ण का दमयंती से विवाह करना आदि हमें छुवाछूत, ऊंच नीच का संदेश तो कदापि नहीं देती । धर्म अमर है धर्म न कभी नष्ट हुआ है और न ही होगा । उतार-चढ़ाव अवश्य संभावी है ।
हमारा प्रयास प्रतिशोधात्मक न होकर संशोधनात्मक और समानता परक होना चाहिए-
हमें धर्म के बजाये उन अनुपालकों को लक्ष्य करना चाहिए जिसके कारण धर्म में दोष का भ्रम होता है । ऐसा करते समय यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि दलित, पिछड़ा, उच्च वर्ग सभी एक समान मानव और मानवता के अधिकारी हैं, ये शब्द ही विभाजक हैं । धर्म न सही मानवता की स्थापना के लिए भी इन शब्दों के साथ जातिसूचक शब्दों का भी विलोप होना चाहिए । हमारा प्रयास प्रतिशोधात्मक न होकर संशोधनात्मक और समानता परक होना चाहिए । यदि हम सचमुच में यथार्थ मानवता लाने में सफल होते हैं तो यथार्थ धर्म भी स्थापित कर लेंगे क्योंकि मानवता धर्म का अभिन्न अंग है ।
भारतीय दर्शन के अनुसार मानव मन का क्लेश तभी दूर होता है, मन की अशांति तभी तृप्त होती है जब सत्य से परिचय होता है । सत्य तत्व का ज्ञान ही भारतीय दर्शन है । गीता में कहा गया है -”किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः” अर्थात क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये का निर्धारण सहज नहीं है, इसे तो सत्य तत्व सेे ही जाना जा सकता है । करने योग्य कार्य और न करने योग्य कार्य दोनों ही कर्म हैं और इन्हीं कर्मो से भाग्य का निर्माण होता है । कर्म एवं भाग्य का प्रभाव जीवन पर निश्चित ही दिखता है। कभी-कभी कर्म पर भाग्य प्रभावी दिखता है तो कभी-कभी भाग्य पर कर्म ! क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये इस बात को निश्चित कर लेने के पश्चात किये गये कर्म के साथ भाग्य सदैव खड़ा रहता है । भाग्य और कर्म को लेकर द्वन्द सा दिखाई देता है । कुछ लोग अपने आप को भाग्यवादी मान कर कर्म को नकारते हैं तो कुछ लोग कर्मवादी होने के नाम पर भाग्य को । एक दूसरे के अस्तित्व को नकारना उसी प्रकार है जैसे घने कुहासा या घने बादल में ढके सूर्य के अस्तित्व को नकाराना । वास्तव में दोनों का अस्तित्व हैं । हमें इन दोनों के अस्तित्व और इनके अंतर्संबंध को समझने का प्रयास करना चाहिये ।
कर्म और भाग्य में द्वन्द-
वास्तव में कर्म एवं भाग्य एक दूसरे के पूरक हैं जहां कर्म से भाग्य का निर्माण होता है वहीं भाग्य से कर्म सहज अथवा कठिन हो सकता है । दोनों एक दूसरें में अंतर्निहित हैं किन्तु अपने चारों ओर के लोगों को देखने पर इन दोनों में द्वन्द होने का आभास होता है । लोग दो भागों में बटे हुये दिखाई देते हैं- एक कर्मवादी और दूसरा भाग्यवादी । कर्मवादी कहते हैं-
उद्योगिनं पुरूषसिंहमुपैति लक्ष्मी,
दैवं हि दैवम् इति कापुरूषा वदन्ति ।
दैवं निहत्य कुरू पौरूषम् आत्मशक्त्या,
यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोअत्र दोष: ।।
-पंचतंत्र, मित्रसम्प्राप्ति
वहीं भाग्यवादी अपने पक्ष में तर्क देते हुये कहते हैं-
समुद्र-मथने लेभे हरिः, लक्ष्मीं हरो विषम्।
भाग्यं फलति सर्वत्र ,न च विद्या न पौरुषम्
कर्म क्या है ?
‘एक मनुष्य द्वारा अपने ज्ञानेन्द्रियों के ज्ञान से कर्मेन्द्रियों द्वारा किये गये प्रत्येक कार्य को ही कर्म कहते हैं ।’ जिसे दो भावों निष्काम अथवा सकाम भाव से दो रीतियों सतकर्म या कुकर्म के रूप में किया जाता है ।बिना परिणाम के कामना किये किये जाने वाले कर्म को निष्काम कर्म कहते हैं । इसमें केवल काम करना होता हैै, उसके लाभ-हानि पर कोई विचार नहीं किया जाता । किसी परिणाम की लालसा से अभिष्ट मनोरथ की सिद्धी के लिये किये जाने वाले कार्य को सकाम कर्म कहा जाता है । इसमें कर्म करने के पूर्व उसके लाभ-हानि पर भलीभांति से विचार करके ही कार्य किया जाता है । जिस कार्य के किये जाने से प्रकृति को क्षति न हो, किसी दूसरे मनुष्य अथवा जीव प्रकृति को कष्ट न हो उस कर्म को सतकर्म कहते हैं ।जिस कार्य के किये जाने से प्रकृति को हानि हो, किसी अन्य प्राणी को कष्ट हो उस कार्य को कुकर्म कहते हैं ।
मानव इन्द्रियाँ क्या है ?
मानव शरीर में मुख्य 10 अंग हैं, इन्हें ही इन्द्रियाँ कहा जाता है । इन्हें दो भागों में बाँटा गया है । पहला ज्ञानेन्द्रिय एवं दूसरा कर्मेन्द्रिय । आँख, कान, नाक, जीभ एवं त्वचा इन पाँचों को ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं क्योंकि इसी के माध्यम से जगत का ज्ञान होता है । आँख से दृश्य का रंग, बनावट आदि का, कान से ध्वनि तरंग, नाक से गंध, जीभ से रस एवं त्वचा के स्पर्श से दृश्य की प्रकृति का ज्ञान होता है । मुख, हाथ, पैर, जननअंग, और मलद्वार ये कर्मेन्द्रियाँ हैं । इन इन्द्रियों के द्वारा ही प्रत्येक कार्य संपादित होते हैं । इन्हीं अंगों की तृप्ती के लिये इन्हीं अंगों द्वारा कार्य किया जाता है ।
भाग्य क्या है ?
भाग्य कर्मो की संचित निधि है । जिस प्रकार व्यवहारिक जीवन में दो प्रकार की संपत्ती होती है । एक चल संपत्ती दूसरा अचल संपत्ती । चल संपत्ती के संचय से ही अचल संपत्ती का निर्माण होता है उसी प्रकार कर्मो के संचय होने से भाग्य का निर्माण होता है ।आय-व्यय के लेखा-जोखा जैसे ही कर्मो का भी हिसाब होता है । किये जाने वाले सतकर्म अथवा कुकर्म का लेखा-जोखा ही भाग्य का निर्माण करता है । गणितीय रूप में सतकर्म एवं कुकर्म के अंतर को ही भाग्य कहते हैं । सतकर्म से पुण्यमयी भाग्य तो कुकर्म से पापमयी भाग्य का निर्माण होता है ।
भाग्यवाद का सिद्धांत-
सतकर्म की अधिकता होने पर पुण्यमयी भाग्य एवं कुकर्म अधिक होने पर पापमयी भाग्य का निर्माण होता है । पुण्यमयी भाग्य को सौभाग्य तो पापमयी भाग्य को दुर्भाग्य की संज्ञा दी गई है । कर्मवाद के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक कर्म का भोगफल अर्थात परिणाम निश्चित है । यही भाग्य है । पुर्नजन्म सिद्धांत के अनुसार एक जीवन का कर्मफल अगले जीवन तक मिलता है, यही भाग्य है । यह अनुभवगम्य है कि कभी-कभी अल्प परिश्रम से अधिक सफलता मिल जाती है, तो कभी-कभी अधिक परिश्रम से अल्प सफलता ही मिल पाती है । जहाँ अल्प परिश्रम से अधिक सफलता मिल जाती है, वहाँ पर पुण्यमयी भाग्य का योगदान होता है, यही सौभाग्य है और जहाँ अधिक परिश्रम से अल्प सफलता ही मिल पाती हैै वहाँ पापमयी भाग्य का योगदान होता है यही दुर्भाग्य है । पहले किये गये कर्म का कर्मफल भाग्य के रूप में पहले मिलता है । बाद में किये गये कर्म का कर्मफल बाद में मिलता है । पापमयी भाग्य के परिणाम को पुण्यमयी भाग्य कम अवश्य कर सकता है समाप्त नहीं । यही भाग्यवाद का सिद्धांत है ।
भाग्य एवं कर्म में अंतर-
चूँकि भाग्य, कर्मो की संचित निधि है । अतः इसका स्वतंत्र अस्तितत्व नहीं है । भाग्य कर्मो से ही बंधा हुआ है । इसलिये ‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा’ कह कर कर्म की प्रधानता को स्वीकार किया गया है । ‘जो जस करहीं सो फल चाखा’ का अर्थ है जो जैसा करेगा वैसा ही भरेगा । यह भाग्य के प्रभाव को व्यक्त करता है कर्मफल से मनुष्य क्या देवता भी नहीं बच सकते । यहाँ तक कि स्वयं जगत नियंता बिष्णु भी कर्मफल से नहीं बच सकते ।
जलान्धर की पत्नि तुलसी का भगवान बिष्णु द्वारा लज्जाहरण किये जाने पर भगवान बिष्णु पत्थर (सालिक राम) बन कर अपने कर्मफल को भोगते हैं ।
इस कथा से कर्म का भाग्य के रूप फल की सिद्धी मिलती है
किसी-किसी कर्म का परिणाम तात्क्षणिक प्राप्त हो जाता है तो किसी-किसी का परिणाम आने में विलंब हो जाता है किन्तु परिणाम अवश्यसंभावी है । इन्हीं कर्मो का हिसाब-किताब संचित रूप में भाग्य बन कर प्रकट होते हैं ।
क्या भाग्यवादी होकर बैठे रहना उचित है ?
यदि भाग्य पर तनिक भी विश्वास करते हो तो आपको कर्म करना ही होगा क्योंकि कर्म ही तो भाग्य का भाग्यविधाता है । अच्छे भाग्य बनाने के लिये अच्छे कर्म करने ही होंगे ।यदि आप भाग्य पर विश्वास ही नहीं करते तब तो आपके पास कर्म करने के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं है । चूँकि भाग्य का निर्माण ही कर्म से होता है । अतः भाग्य के भरोसे बैठा रहना कदापि उचित नहीं है । पहले किये गये कर्मो की संचित निधि भाग्य है । यदि पहले का पापमयी भाग्य अधिक हो तो सतकर्म करके इसके प्रभाव को कम किया जा सकता है अथवा निष्प्रभावी भी किया जा सकता है ।
कर्म प्रमुख संसार में, भाग्य कर्म का सार ।
कर्म करे से भाग्य है, भाग्य कर्म उपकार ।।
मानव जीवन में सच्चाई क्या है? हमारा शरीर या हमारी आत्मा। हम जो दृश्य अपनी आँखों से देखते हैं, जो आवाज़ हम अपने कानों से सुनते हैं, जीभ में जो स्वाद होता है सच्चाई क्या है ? इनमें से कोई एक या सभी से अलग है जिसे सत्य कहा जा सकता है।
आत्मा और देह
इस पर विचार करते हुए, हम पाते हैं कि शरीर का अस्तित्व आत्मा के बिना नहीं है और आत्मा का अस्तित्व शरीर के बिना अनुभव नहीं किया जाता है। शरीर और आत्मा एक दूसरे के पूरक हैं। हालांकि, यह कहा जा सकता है कि शरीर और आत्मा दोनों ही हैं सच। इसकी सत्यता फूल में खुशबू, फल में स्वाद के समान है। जैसे फूल के बिना खुशबू और खुशबू के बिना फूल , स्वाद के बिना फल और फल के बिना स्वाद की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी तरह से शरीर के बिना आत्मा और आत्मा के बिना शरीर की कल्पना पूर्ण नहीं है। आत्मा के बिना शरीर को एक शव कहा जाता है।
श्रीमद्भागवत गीता का कथन
हिंदू धर्मग्रंथ श्रीमद भगवद गीता के अनुसार, आत्मा कभी पैदा नहीं होती है और न ही मरती है, यह शाश्वत अमर है। जन्म शरीर का होता है और शरीर में ही बचपन, जवानी और बुढ़ापे के विभिन्न चरण होते हैं। इसलिए, मृत्यु भी केवल शरीर की है, इसका मतलब है कि शरीर और आत्मा दोनों सत्य होने के बावजूद, केवल आत्मा शाश्वत सत्य है।
सत्य की सत्यता
सत्य का अर्थ है शाश्वत जिसमें न लिंग है, न जातिगत भेदभाव है, न ही और कोई भेद। जो भी हो, जहां भी हो, जैसा भी हो, हर परिस्थिति में जो शाश्वत सच है, वही सत्य है ।
सत्य अव्यक्त किन्तु अनुभवगम्य है
यदि एक हजार लोग एक दृश्य देख रहे हैं और उनसे बाद में पूछा जाता है, तो प्रत्येक व्यक्ति के देखने के तरीके में अंतर दिखाई देगा। अर्थात् उन सभी लोगों ने सत्य को देखा है लेकिन सत्य को व्यक्त करने में सक्षम नहीं हैं जैसा कि वह है, अर्थात सत्य। इस प्रकार आँखों से देखा गया भी सत्य नहीं हो सकता । इसी प्रकार सुना भी सत्य नहीं होता । सत्य को तो केवल अनुभव किया जा सकता है । अनुभवगम्य सत्य ही ईश्वर है ।
सत्य ही ईश्वर है
सत्य ही सत्य है। ईश्वर ही ईश्वर है । ईश्वर ही सत्य है । सत्य ही ईश्वर है । जिस प्रकार सत्य अनुभवगम्य है, उसी प्रकार ईश्वर अनुभवगम्य किंतु अव्यक्त है ।
भारत का बच्चा-बच्चा जानता है कि भगवान गणेश प्रथम पूज्य है । चाहे वह गृहस्थी हो, चाहे वह सन्यासी हो, चाहे वह शैव हो, चाहे वह वैष्णव हो सभी व्यक्तियों, संप्रदायों के द्वारा गणेशजी की प्रथम पूजा की जाती है । चाहे घर का कोई मांगलिक, धार्मिक अनुष्ठान हो, चाहे व्यपार का प्रारंभ करना हो चाहे अन्य कामों का प्रारंभ करना हो हर काम, हर आयोजन के प्रारंभ गणेश जी के पूजन से ही करते हैं यही कारण है कि हमारे समाज में किसी कार्य को प्रारंभ करने के लिये ‘श्रीगणेश करें’ कहा जाता है । इस प्रकार कोई पूजा-पाठ का आयोजन हो या न हो किन्तु गणेशजी का नाम हर कार्य के पहले लिया ही जाता है ।
गणेशजी का वैदिक महत्व-
हमारे वेद-पुराणों में गणेशजी की पूजा-अराधना को सबसे पहले ही नहीं सबसे महत्वपूर्ण स्वीकार किया गया है । इन् पावन ग्रंथों के अनुसार महागणपति गणराज को कारणब्रह्म अर्थात सृष्टि के सभी प्रकार के कार्यो एवं रचनाओं का कारण और कार्यब्रह्म अर्थात सृष्टि के सभी प्रकार कार्यो एवं रचनाओं को करनेवाल स्वीकार किया गया है । इस गणेशजी को ही उत्पत्ती, स्थिाति और प्रलय का कारण और करण के रूप माना गया है । शिवमानस पूजा में श्री गणेश को प्रणव (ॐ) कहा गया है। इस एकाक्षर ब्रह्म में ऊपर वाला भाग गणेश का मस्तक, नीचे का भाग उदर, चंद्रबिंदु लड्डू और मात्रा सूँड है।
गणेशजी का जन्म की कथा-
श्रीगणेशजी अजन्मा है । गणेशजी मॉं के गर्भ से जन्म नहीं लिया है । भगवान गणेश के जन्म के संबंध में प्रचलित कथा के अनुसार भी भगवान गणेश का जन्म नहीं हुआ है अपितु माता पार्वती ने गणेशजी की देह की रचना अपने शरीर के हरिद्रलेप से की हैं । इस कथा के अनुसार एकबार माता पार्वती स्नान करते समय शरीर में चंदन-हल्दी आदि का उबटन लगाई हुई थी । इसी समय अपने पहरेदारी की कामना से एक मानवाकृति की रचना कर उसे अपने आद्य शक्ति से प्राणवान कर दिये । गणेश जी जो पहले गजमुख नहीं थे, को अपने पहरेदारी का दायित्व दिया । बालक गणेश अपने मॉं के के पहरेदारी में द्वार के बाहर खड़े हो गये । उनकी परीक्षा लेने सभी देवता आकर अंदर जाने की चेष्टा करने लगे किन्तु बालगणेश सभी को पराजीत करते चले गये । अंत में भगवान भोलेनाथ आये उन्हें भी बालगणेण द्वार ही रूकने कहा किन्तु भोलेनाथ ने कहा यह घर मेरा है मुझे अंदर जाने दो । बालगणेश के नहीं मानने पर भोलेनाथ उनका सिर धड़ से अलग कर दिया । इस माता बहुत ही रूष्ट हुई, उनके क्रोध से बचने के लिये इस बालक पुनर्जीवित किया गया इसके उसके धड़ पर हाथी का सिर जोड़ दिया गया । तब गणेश गजानन कहलाने लगे । इस घटना के विद्वानों ने बालक गणेश की रचना पर माता-पिता दोनों की सहयोग से जोड़कर देखते हैं, इस घटना के पहले वह बालक केवल माता की रचना थी, भगवान भोलेनाथ द्वारा उस बालक के धड़ में सिर जोड़ जाने से वह पिता की भी रचना हो गया । इस प्रकार गणेशजी के माता पार्वती एवं पिता भगवान भोलेनाथ को स्वीकार किया गया । यह घटना भादो मास के शुक्ल चतुर्थी को हुआ था । इस कारण इसी दिन भादो मास के शुक्ल चतुर्थी को गणेशजयंती के रूप में जाना जाता है ।
गणेशजी के प्रथम पूज्य होने की कथा-
त्रिदेव ब्रह्मा,विष्णु और महेश ने देवों में सबसे पहले किसकी पूजा की जाये यह तय करने के लिये देवताओं के मध्य एक स्वस्थ प्रतियोगिता का आयोजन किया गया । प्रतियोगिता का शर्त था कि जो देवता पृथ्वी के सात प्रदक्षिणा करके वापस आयेगा वही प्रथम पूज्य होंगे । सभी देवताओं ने अपने-अपने वाहनों से पृथ्वी प्रदक्षिण प्रारंभ कर दी किन्तु गणेशजी अपने मूषक वाहन में बैठकर अपने माता-पिता भगवान भोले नाथ एवं माता गौरी के प्रदक्षिणा प्रारंभ कर दी । उनसे ऐसा करने का कारण पूछने पर उसने बताया कि माता स्वयं धरती की प्रतीक होती हैं और पिता आकाश का प्रतीक होता है । इस प्रकार मैनें धरती और आकश का सात प्रदक्षिण पूरा कर ली है । उनके इस तर्क से त्रिदेव बहुत प्रसन्न हुये और गणेशजी को बुद्धि का देवता स्वीकार अग्र पूजा के अधिकारी नियुक्त किये तब से गणेशजी की सबसे पहले पूजा की जाती है ।
गणेशजी को प्रथम पूज्य मानकर सभी कार्यो के प्रारंभ में गणेशजी की पूजा की जाती है । गणेशजी को बुद्धि के देवता के रूप स्वीकार किया जाता है । गणेशजी को विघ्नविनाशक के नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ हर बाधाओं और कष्टों से रक्षा करने वाला होता है । गणेशजी की पत्नी रिद्धी और सिद्धी हैं जो धन-धान्य और यश-कीर्ति की प्रतीक हैं । इस प्रकार गणेशजी की अराधना से ही रिद्धी-सिद्धी प्राप्त किये जा सकते हैं । शुभ और लाभ गणेशजी के पुत्र हैं जो सफलता एवं प्रगति के परिचायक हैं । इसप्रकार मानवजीवन के भौतिक जीवन एवं अध्यात्मिक दोनों जीवन के लिये गणेशजी का अराधना सुख-शांति, सफलता-प्रगति, धन-धान्य, यश-कीर्ति और मुक्ति का साधन है ।
पूजन पद्यति स्वयं में वृहद और जटिल भी होता है किन्तु यथाशक्ति पूजन करने का विधान बनाया गया है । इसलिये अपने शारीरिक और आर्थिक शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार भगवान की पूजा जाती है । इसके संक्षेप में दो विधियां प्रचलित है-
पंचोपचार पूजन- इस पूजन पॉंच प्रकार के पूजन सामाग्री से भगवान की पूजा की जाती है । इसके लिये पहले चंदन, गंध, कुंकुम, हल्दी आदि मे से कोई एक या सभी, दूसरा पुष्प-पल्लव भेट करना, तीसरा धूप देना, चौथा दीप और पॉंचवा नैवेद्य चढ़ाना होता है ।
षोडशोपचार पूजन – इस पूजन पद्यति में सोलह प्रकार से भगवान की पूजा की जाती है । इसका क्रमा इसप्रकार है- 1.आव्हान करना 2.आसन देना 3. पाद्य देना 4.अर्घ देना 5;आचवन करना 6. स्नान कराना 7.वस्त्र चढ़ाना 8. उपवस्त्र और यज्ञोपवित 9.चंदन, गंध, कुंकुम, हल्दी आदि मे से कोई एक या सभी 10.पुष्प-पल्लव भेट करना 11..धूप देन. 12..दीप 13.नैवेद्य चढ़ाना 14.ध्यान-प्रणाम 15. आरती-परिक्रमा और 16. पुष्पांजली-क्षमाप्रार्थना ।
गणेश जी मंत्राष्टक (आठ मंत्र)-
गणेशजी का बीज मंत्र -”गं”
कामनापूर्ति मंत्र- ‘ॐ गं गणपतये नमः’
षडाक्षर मंत्र -”ॐ वक्रतुंडाय हुम”
उच्छिष्ट मंत्र- ”ॐ हस्ति पिशाचि लिखे स्वा”
विघ्ननिवारण मंत्र-”गं क्षिप्रप्रसादनाय नम”
हेरम्ब गणपति मंत्र – ‘ॐ गं नमः’
लक्ष्मीविनायक मंत्र- ”ॐ श्रीं गं सौभ्याय गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा”
त्रैलोक्य मोहन गणेश मंत्र -”ॐ वक्रतुण्डैक दंष्ट्राय क्लीं ह्रीं श्रीं गं गणपते वर वरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा।’