1.नम्रता और स्नेहार्द्र वक्तृता केवल यही मनुष्य के आभूषण हैं और कोई नहीं ।
2. अधर्म द्वारा एकत्र की हुई सम्पत्ती की अपेक्षा तो सदाचारी पुरूष की दरिद्रता कहीं अच्छी है ।
3. जिन कर्मो में असफलता अवश्यसंभावी है, उसे संभव कर दिखाना और विध्न-बाधाओं से न डर कर अपने कर्तव्य पर डटे रहना प्रतिभा शक्ति के लिये दो प्रमुख सिद्धांत हैं ।
4. लोगों को रूलाकर जो सम्मपत्ती इकट्ठी की जाती है, वह क्रन्दन ध्वनि के साथ ही विदा हो जाती है, मगर जो धर्म द्वारा संचित की जाती है, वह बीच में ही क्षीण हो जाने पर भी अंत में खूब फलती-फूलती है ।
5. यदि तुम्हारे विचार शुद्ध और पवित्र है और तुम्हारी वाणी में सहृदयता है, तो तुम्हारी पाप वृत्ति का स्वयमेव क्षय हो जायेंगे ।
6. सत्पुरूषों की वाणी ही वास्तव में सुस्निग्ध होती है । क्योंकि दयार्द्र कोमल और बनावट से रहित होती है ।
7. लक्ष्मी ईर्ष्या करने वालों के पास नहीं रह सकती । वह उसको अपनी बड़ी बहन दरिद्रता के हवाले कर देती है ।
8. मीठे शब्दों के रहते हुए भी जो मनुष्य कड़वे शब्द का प्रयोग करता है, वह मानों पक्के फल को छोडकर कच्चा फल खाना चाहता है ।
गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस को ‘छहो शास्त्र सब ग्रंथन का रस’ कहा गया है अर्थात रामचरित मानस एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें सभी वेदों, पुराणों, एवं शास्त्रों का निचोड़ है । जीवन के हर मोड़ के लिये यह एक पदथप्रदर्शक के रूप में हमें दिशा देती है । इसी रामचरित मानस के प्रथम सोपान बालकाण्ड के दोहा संख्या 6 से दोहा संख्या 7 साधु असाधु में भेद और कुसंग और सुसंग का व्यापक व्याख्या है । आज संगति पर विचार समिचिन लग रहा है ।
‘हानि कुसंग सुसंगति लाहू’ – गोस्वामी तुलसीदास
जड़ चेतन गुन दोष मय-
रामचरित मानस के प्रथम सोपान बालकाण्ड़ के दोहा संख्या 6 में गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं-
करतार अर्थात ब्रम्हा ने विश्व को गुण और दोष युक्त जड़ और चेतन की रचना की है । जो लोग संत होते हैं, वे हंस जैसे केवल दूध रूपी गुण को ग्रहण करते हैं और पानी रूपी बिकार अर्थात दोष को छोड़ देते हैं ।
गुणार्थ-
‘बिधि प्रपंच गुन अवगुन साना’ विधाता ने माया में गुण और अवगुण मिला दिया है । अब इस गुण और अवगुण के मिश्रण गुण को पृथ्क करने का सामर्थ्य तो केवल संत में है । संत ही हैं जो आम जन को इस माया से गुण को अलग करके देता है ।
यहॉं संत को परिभाषित किया गया है कि संत वहीं हैं जो गुण अवगुण युक्त माया से केवल गुण को पृथ्क करने का सामर्थ्य रखता है ।
अस बिबेक जब देइ बिधाता-
अस बिबेक जब देइ बिधाता । तब तजि दोष गुनहिं मनु राता
अर्थ-
ऐसा विवेक, ऐसी बुद्धि जब विधाता दें, तभी दोष छोड़ कर मन गुण में रत रह सकता है ।
गुणार्थ-
ऐसा विवेक अर्थात हंस जैसा विवेक गुण और अवगुण को अलग करने की सामर्थ्ययुक्त बुद्धि एक तो विधाता दे सकते हैं दूसरा सत्संग से प्राप्त किया जा सकता है । यदि आप स्वयं हंस नहीं है तो दूध और पानी को अलग नहीं कर सकते किन्तु आप यदि इनका बिलगाव चाहते हैं तो हंस का सहयोग लेना ही होगा । ठीक इसी प्रकार यदि हम माया से गुण दोष को अलग नहीं कर सकते तो हंस रूप संत का संतसंग करके गुण दोष को पृथ्क कर सकते हैं ।
काल सुभाउ करम बरिआई-
काल सुभाउ करम बरिआई । भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई
अर्थ-
काल अर्थात समय के स्वभाव से और कर्म की प्रबलता से प्रकृति अर्थात माया के वशीभूत होकर भले लोग भी भलाई करने से चुक जाते हैं ।
गुणार्थ-
‘काल, करम गुन सुभाउ सबके सीस तपत’ सभी प्राणियों शिश पर पर काल और कर्म का प्रभाव उपद्रव करते फिरता है इस प्रभाव से एक आवरण पड़ जाता है जिससे भले लोग भी भलाई करने से चूक जाते हैं अर्थात गुण और अवगुण में भेद नहीं कर सकते । इसका सरल उपाय गोस्वामीजी स्वयं देते हैं- ‘काल धर्म नहिं व्यापहिं ताहीं । रघुपति चरन प्रीति अति जाहीं” काल और कर्म के प्रभाव से जो आवरण बन जाता है उस आवरण को केवल और केवल रघुपति के चरण पर प्रीति रखने से नष्ट किया जा सकता है ।
काल और कर्म के प्रभाव जो भलाई करने से चूक जाते हैं, इस चूक को हरिजन अर्थात ईश्वर भक्त सुधार लेते हैं । अपने चूक को सुधारते हुये ऐसे लोग दुख और दोष का दमन करके विमल यश को देते हैं ।
गुणार्थ-
ल सुधार की शक्ति केवल हरिभक्त के पास है । गोस्वामीजी कहते हैं-‘नट कृत कपट बिकट खगराया । नट सेवकहिं न ब्यापहिं माया’ अर्थात इस सृष्टि के नट अर्थात ईश्वर द्धारा बनाया गया माया विकट है, यदि उस नट की सेवारत रहा जाये तो यह विकटता उसे नहीं व्यापता । काल कर्म का प्रभाव तो होगा उसका भोग देह को भी होगा किन्तु मन को नहीं क्योंकि -‘मन जहँ जहँ रघुबर बैदेही । बिनु मन तन दुख सुख सुधि केहि’ जब मन ईश्वर भक्ति में लगा हो तो बिना मन के तन को होने वाले सुख दुख की अनुभूती ही किसे होगी ?
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू-
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू । मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू
अर्थ-
खल भी अच्छी संगती पाकर भलाई करने लगते हैं किन्तु उनके मन का स्वभाव मिटता नहीं जैसे ही वह कुसंग के प्रभाव में आता है भलाई करना छोड़ देता है ।
गुणार्थ-
संत और खल दोनों का स्वभाव स्थिर रहता है किन्तु दोनों में एक भेद है संत भलाई करने के गुण को किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ता वहीं खल परिस्थिति के अनुसार बदल जाते हैं जब सुसंग का प्रभाव होता है वह भलाई करने लगते किन्तु कुसंग के प्रभाव में आते ही अपने मूल स्वभाव के अनुसार भलाई करना छोड़ देता है ।
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ-
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ । बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ
उघरहिं अंत न होइ निबाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू
अर्थ-
दुनिया में जो बंचक अर्थात कपटी हैं सुंदर वेष अर्थात साधु के वेष को धारण करने के कारण केवल वेष के प्रभाव से पूजे जाते हैं । जो कपटी केवल सुंदर वेष के कार पूजे जाते हैं अंत उनका कपट खुल ही जाता है जिस प्रकार हनुमान के पथ के बाधा बने कपटी साधु कालनेमी, सीताहरण के साधु बने रावण और अमृतपान करने दैत्य राहू का कपटी देव रूप का भेद खुल गया ।
गुणार्थ-
छद्म का आज नहीं कल पर्दाफााश होना ही होना है । इसलिये बनावटी चरित्र का दिखावा न करें अपितु अपने चरित्र में परिवर्तन लावें । यह परिवर्तन केवल सुसंग अच्छे लोगों की संगति में बने रहने से ही संभव है । अपने मानसिक शक्ति में व;द्धि करने के लिये अपने आत्मबल को जागृत करने के लिये सही संगत का चयन कीजिये ।
कुसंग से हानि और सुसंग से लाभ होता है । इस बात को सभी कोई जानते हैं हमारे वेदों ने भी इसी बात का उपदेश किया है ।
गुणार्थ-
वेदों द्वारा अनुमोदित इस तथ्य को सभी जानते हैं कि कुसंग से केवल नुकसान ही होता और सुसंग केवल लाभ ही लाभ । जानते तो सभी कोई हैं किन्तु इस बात अंगीकार करने वाल विरले ही हैं । विरले ही लोग साधु होते हैं, इन्हें ही संत की संज्ञा दी जाती है ।
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा-
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलइ नीच जल संगा
अर्थ-
तुलसीदास धूल की संगति का उदाहरण देते हुये कहते हैं कि धूल वही किन्तु संगति के प्रभाव से उसका महत्व अलग-अलग हो जाता है । जब धूल वायु के संपर्क में आता है तो वायु के साथ मिलकर आकाश में उड़ने लगता है किन्तु जब वही धूल जल की संगति करता है किचड़ बन कर पैरों तले रौंदे जाते हैं ।
गुणार्थ-
जब धूल जल के साथ मिलकर कीचड़ बन जाता है तो उस कीचड़ को पवन उड़ा नहीं सकता उसी प्रकार कुसंगति के अधिक प्रभाव हो जाने पर संत उस मूर्ख को नहीं सुधार सकता-
'फूलइ फरइ न बेत, जदपि सुधा बरसइ जलद ।
मूरूख हृदय न चेत, जो गुरू मिलहिं बिरंचि सम ।।
साधु असाधु सदन सुकसारी-
साधु असाधु सदन सुकसारी ।सुमरहि रामु देहिं गनिगारी
अर्थ-
साधु और असाधु दोनों घरों के पालतू तोता में भी संगति का अंतर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । साधु के सानिध्य का तोता राम-राम बोलता है जबकि असाधु के संगत वाला तोता गिन-गिन कर गालियां देता है ।
गुणार्थ-
संगति का प्रभाव वृहद और अवश्यसंभावी होता है । जिस प्रकार गिरगिट परमौसम और परिवेश का यह प्रभाव होता है उसके शरीर का रंग बदल जाता है ।
‘संत संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।’ संतो का सतसंग करना स्वर्ग दिला सकता है वहीं कामी का संग करना संसार रूपी भव सागर डूबो देती है ।
धूम कुसंगति कारिख होई-
धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु सोई
सोइ जल अलन अनिल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता
अर्थ-
धुँआ की संगति को परख कर देखिये वहीं धुँआ कुसंगति के प्रभाव से धूल-धूसरित होकर कालिख बन अपमानित होता है तो वही धुँआ सत्संगति के प्रभाव से स्याही बन पावन ग्रंथों में अंकित होकर सम्मानित होता है । वहीं धुऑं जल अग्नि और वायु के संपर्क में आकर मेघ बना जाता है और यही मेघ दुनिया के जीवनदाता कहलाता है ।
गुणार्थ-
संगति व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व और कर्म को प्रभावित कर सकता है । कुसंग के प्रभाव से जहां वह जगत के लिये भार होता है वहीं सुसंग के प्रभाव जगत के लिये मंगलकारी ।
ग्रह भेषज जल पवन पट-
ग्रह भेषज जल पवन पट, पाइ कुजोग सुजोग ।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ।।7।।
अर्थ-
ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र संगति के कारण भले और बुरे हो जाते हैं । ज्योतिषशास्त्र के अनुसार कुछ ग्रह शुभ और कुछ ग्रह अशुभ होते हैं किन्तु द्वादश भाव में विचरण करते हुये किसी स्थान शुभ परिणाम देते हैं तो किसी स्थान पर अशुभ परिणाम देते हैं । आयाुर्वेद के औषधि के लिये पथ्य-अपथ्य निर्धारित हैं । यदि पथ्य पर औषधि अच्छे परिणाम देते हैं जबकि अपथ्य से बुरे परिणाम हो सकते हैं । वायु सुंगंध के संपर्क में होने पर सुवासित और दुर्गंध के संपर्क में होने सडांध फैलाता है । इसी प्रकार शालिनता के संपर्क में वस्त्र पूज्य हो जाते हैं जबकि अश्लिलता के संपर्क से तृस्कृत होते हैं ।
गुणार्थ-
एक वस्तु के दूसरे वस्तु के संपर्क में आने पर या एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आने पर एक दूसरे के गुणों में सकारात्मक या नकारात्मक परिवर्तन अवश्यसंभावी हैं । अपने अंदर सकारात्मक परिवर्त करने लिये ऐसे परिवेश, ऐसे मित्रों या ऐसे सहचर्यो का चयन करना चाहिये जिससे अच्छे विचार जागृत हों, अच्छे कर्मो को करने की प्रेरणा मिले ।
बाल्यकाल से पढ़ते आ रहे हैं की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं और समाज का न्यूनतम इकाई परिवार है । जब हम यह कहते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं तो इसका अर्थ क्या होता है ? किसी मनुष्य का जीवन समाज में उत्पन्न होता है और समाज में ही विलीन हो जाता है । सामाज का नींव परिवार है ।
परिवार क्या है ?
कहने के लिये हम कह सकते हैं-“वह सम्मिलित वासवाले रक्त संबंधियों का समूह, जिसमें विवाह और दत्तक प्रथा स्वीकृत व्यक्ति सम्मिलित होता है परिवार कहलाता है ।” इस परिभाषा के अनुसार परिवार में रक्त संबंधों के सारे संबंधी साथ रहते हैं जिसे आजकल संयुक्त परिवार कह दिया गया । और व्यवहारिक रूप से पति पत्नी और बच्चों के समूह को ही परिवार में माना जा रहा है ।
परिवार का निर्माण-
परिवार का निर्माण तभी संभव है जब अलग अलग-अलग रक्त से उत्पन्न महिला-पुरुष एक साथ रहें । भारत में पितृवंशीय परिवार अधिक प्रचलित है । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि परिवार में नारी का स्थान कमतर है वस्तुतः परिवार का अस्तित्व ही नारी पर निर्भर है । नारी अपना जन्म स्थान छोड़कर पुरुष के परिवार का निर्माण करती है । व्यक्ति की सामाजिक मर्यादा परिवार से निर्धारित होती है। नर-नारी के यौन संबंध परिवार के दायरे में निबद्ध होते हैं। यदि नारी पुरुष के साथ रहने से इंकार कर दे तो परिवार का निर्माण संभव ही नहीं है, इसी बात को ध्यान में रखकर लड़की की माता-पिता अपनी बेटी को बाल्यावस्था से इसके लिये मानसिक रूप तैयार करती है । परिवार में पुरुष का दायित्व परिवार का भरण-पोषण करना और परिवार को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने का दायित्व दिया गया है । पुरूष इस दायित्व का निर्वहन तभी न करेंगे जब परिवार का निर्माण होगा । परिवार का निर्माण नारी पर ही निर्भर है ।
परिवार में विवाह का महत्व-
परिवार विवाह से उत्पन्न होता है और इसी संबंध पर टिका रहता है । भारतीय समाज में विवाह को केवल महिला पुरुष के मेल से नहीं देखा जाता । अपितु दो परिवारों, दो कुटुंबों के मेल से देखा जाता है । परिवार का अस्तित्व तभी तक बना रहता है जब तक नारी यहां नर के साथ रहना स्वीकार करती है जिस दिन वह नारी पृथक होकर अलग रहना चाहती है उसी दिन परिवार टूट जाता है यद्यपि परिवार नर नारी के संयुक्त उद्यम से बना रहता है तथापि पुरुष की तुलना में परिवार को बनाने और बिगाड़ने में नारी का महत्व अधिक है । यही कारण है कि विवाह के समय बेटी को विदाई देते हुए बेटी के मां बाप द्वारा उसे यह शिक्षा दी जाती है के ससुराल के सारे संबंधियों को अपना मानते हुए परिवार का देखभाल करना ।
बुजुर्ग लोग यहां तक कहा करते थे कि बेटी मायका जन्म स्थल होता है और ससुराल जीवन स्थल ससुराल में हर सुख दुख सहना और अपनी आर्थी ससुराल से ही निकलना । किसी भी स्थिति में मायका में जीवन निर्वहन की नहीं सोचना । इसी शिक्षा को नारीत्व की शिक्षा कही गयी ।
परिवारवाद पर ग्रहण लग रहा है-
नारीत्व की शिक्षा ही परिवार के लिये ग्रहण बनता चला गया । ससुराल वाले कुछ लोग इसका दुरूपयोग कर नारियों पर अत्याचार करने लगे । यह भी एक बिड़बना है कि परिवार में एक नारी के सम्मान को पुरूष से अधिक एक नारी ही चोट पहुँचाती है । सास-बहूँ के संबंध को कुछ लोग बिगाड़ कर रखे हैं । अत्याचार का परिणाम यह हुआ कि अब परिवार पर ही प्रश्नवाचक चिन्ह लगने लग गया है । नारी इस नारीत्व की शिक्षा के विरूद्ध होने लगे । परिणाम यह हुआ कि आजकल कुछ उच्च शिक्षित महिलाएं आत्मनिर्भर होने के नाम पर परिवार का दायित्व उठाने से इंकार करने लगी हैं ।
परिवार के विघटन के कारण-
परिवार का अर्थ पति-पत्नि और बच्चे ही कदापि नहीं हो सकता । परिवार में जितना महत्व पति-पत्नि का है उससे अधिक महत्व सास-ससुर और बेटा-बहू का है । आजकल के लोग संयुक्त परिवार से भिन्न अपना परिवार बसाना चाहते हैं । यह चाहत ही परिवार को अपघटित कर रहा है ।
पति-पत्नि के इस परिवार को देखा जाये तो बहुतायत यह दिखाई दे रहा है कि महिला पक्ष के संबंधीयों से इनका संबंध तो है किन्तु पुरूष के संबंधियों से इनका संबंध लगातार बिगड़ते जा रहे हैं ।
कोई बेटी अपने माँ-बाप की सेवा करे इसमें किसी को कोई आपत्ती नहीं, आपत्ति तो इस बात से है कि वही बेटी अपने सास-ससुर की सेवा करने से कतराती हैं ।
हर बहन अपने भाई से यह आपेक्षा तो रखती हैं कि उसका भाई उसके माँ-बाप का ठीक से देख-रेख करे किन्तु वह यह नहीं चाहती कि उसका पति अपने माँ-बाप का अधिक ध्यान रखे ।
यही सोच आज परिवार के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा कर रहा है । शतप्रतिशत महिलायें ऐसी ही हैं यह कहना नारीवर्ग का अपमान होगा, ऐसा है भी नहीं किन्तु यह कटु सत्य इस प्रकार की सोच रखनेवाली महिलाओं की संख्या दिनोंदिन बढ़ रहीं हैं ।
कुछ पुरूष नशाखोरी, कामचोरी के जाल में फँस कर अपने परिवारिक दायित्व का निर्वहन करने से कतरा रहे हैं, यह भी परिवार के विघटन का एक बड़ा कारण है ।
परिवार का संरक्षण कैसे करें-
संयुक्त परिवार से भिन्न अपना परिवार बसाने की चाहत पर यदि अंकुश नहीं लगाया गया तो वह दिन दूर नहीं जब भारतीय परिवार की अभिधारणा केवल इतिहास की बात होगी ।
हमें इस बात पर गहन चिंतन करने की आवश्यकता है कि-महिलाओं पर अत्याचार क्यों ? महिलाओं का अपमान क्यों ? जब परिवार की नींव ही महिलाएं हैं तो महिलाओं का सम्मान क्यों नही ?
इसके साथ-साथ इस बात पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि महिला अपने ससुराल वालों का सम्मान क्यों नहीं कर सकती ? क्या एक आत्मनिर्भर महिला परिवार का दायित्व नहीं उठा सकती ? चाहे वह महिला सास हो, बहू हो, ननद हो, भाभी हो या देरानी-जेठानी । पत्नि और बेटी के रूप में एफ सफल महिला अन्य नातों में असफल क्यों हो रही हैं ?
इन सारे प्रश्नों का सकारात्मक उत्तर ही परिवार को संरक्षित रख सकता है ।
महिलाओं का सम्मान आवश्यक है-
महिलाओं के सम्मान करके, महिला-पुरूष एवं महिला-महिला में परस्पर सामंजस्य स्थापित करके और अपने पारंपरिक नैतिक मूल्यों को संरक्षित करके ही हम परिवार के अस्तितत्व को बचा सकते हैं ।
कुंडलियां छंद एक विषम मात्रिक छंद है । जिसमें 6 पद 12 चरण होते हैं । यद्यपि सभी 6 पदों में 24-24 मात्राएं होती हैं किन्तु पहले दो पदों में 13,11 यति से चौबीस मात्राएं होती हैं जबकि शेष चारों पदों में 13,11 यति पर चौबीस मात्राएं होती हैं । वास्तव में कुंडलियां छंद दोहा और रोला दो छंदों के मेल से बनता है । कुंडिलयां में पहले दोहा फिर रोला आता है । दोहा में 13,11 के यति से 24 मात्राएं होती हैं जबकि रोला में 11,13 यति पर 24 मात्राएं होती हैं ।
कुण्डलियां छंद में कुण्डलियां छंद की परिभाषा-
दोहा रोला जोड़कर, रच कुण्डलियां छंद ।
सम शुरू अंतिम शब्द हो, प्रारंभ अंतिम बंद ।।
प्रारंभ अंतिम बंद, शब्द तो एकही होते ।
दोहा का पद अंत, प्रथम पद रोला बोते ।।
तेरह ग्यारह भार, छंद रोला में सोहा ।
ग्यारह तेरह भार, धरे रखते हैं दोहा ।।
कुण्डलियां की विशेषताएं-
उपरोक्त परिभाषा से कुंडलियां के निम्न लक्षण या विशेषताएं कह सकते हैं-
कुण्डलियां में 6 पद अर्थात 6 पंक्ति होती है ।
पहले दो पद दोहा के होते हैं ।
शेष चार पद रोला के होते हैं ।
दोहा का अंतिम (चौथा) चरण ज्यों का त्यों रोला का प्रथम चरण होता है ।
कुण्डलियां के पांचवें पद के पहले चरण में कवि का नाम आता है ।
कुण्डलियां जिस शब्द या शब्द समूह से प्रारंभ हुआ है उसी से उसका अंत होता है ।
दोहा छंद-
दोहा एक विषम मात्रिक छंद है । इसमें दो पद और चार चरण होते हैं । इनके विषम चरणों 13 मात्राएं और सम चरणों 11 मात्राएं कुल 24 मात्राएं होती हैं । चारों चरणों की ग्यारहवीं मात्रा निश्चित रूप से लघु होना चाहिये । विषम चरण का प्रारंभ जगण अर्थात लघु-गुरू-लघु से नहीं किया जाता है । सम चरण का अंत गुरू-लघु से समतुक से होता है ।
दोहा छंद की परिभाषा दोहा छंद में –
चार चरण दो पंक्ति में, होते दोहा छंद ।
तेरह ग्यारह भार भर, रच लो हे मतिमंद ।।
ग्यारहवीं मात्रा होय जी, निश्चित ही लघु भार ।
आदि जगण तो त्याज्य है, आखिर गुरू-लघु डार ।
कुण्डलियां छंद में दोहा का गुणधर्म-
भरिये दोहा छंद में, ग्यारह तेरह भार ।
चार चरण दो पंक्ति में, आखिर गुरू लघु डार ।।
आखिर गुरू लघु डार, चरण सम ग्यारह होवे ।
विशम चरण में भार अधि, भार तेरह को ढोवे ।
सुन लो कहे ‘रमेश’, ध्यान धरकर मन धरिये ।
सभी ग्यारवीं भार, मात्र लघु मात्रा भरिये ।।
दोहा छंद की विशेषताएं-
दोहा छंद में चार चरण और दो पद होते हैं ।
पहले और तीसरे चरण को विषम चरण कहते हैं, दूसरे और चौथे चरण को समचरण कहते हैं ।
विषम चरण में 13-13 मात्राएं होती हैं ।
सम चरण में 11-11 मात्राएं होती हैं ।
चारों चरणों की ग्यारहवी मात्रा निश्चित रूप से लघु होना चाहिये ।
विषम चरण के आदि में जगण वर्जित है ।
सम चरण का अंत गुरू-लघु से होना अनिवार्य है ।
सम चरण के अंत के गुरू-लघु का समतुकांत होना भी अनिवार्य है ।
रोला छंद-
रोला छंद भी एक विषम मात्रिक छंद है । इसमें आठ चरण और चार पद होते हैं । विषम चरणों में 11-11 मात्राएं और सम चरणों में 13-13 मात्राएं होती हैं । दोहा के मात्रा के उलट मात्रा रोला में होने के कारण कई लोग इसे दोहा का विलोम भी कह देते हैं जो सही नहीं है । दोहा का विलोम सोरठा होता है रोला नहीं । दोहा के चरणों को उलट देने से सोरठा बनता है ।
रोला छंद में रोला छंद की परिभाषा-
आठ चरण पद चार, छंद रोला में भरिये ।
ग्यारह तेरह भार, विषम सम चरणन धरिये ।
विषम चरण का अंत, भार गुरू-लघु ही आवे ।
त्रिकल भार सम आदि, अंत चौकल को भावेे।।
कुण्डलियां छंद में रोला छंद का गुणधर्म-
रोला दोहा के उलट, ग्यारह तेरह भार ।
भेद चरण में होत है, आठ चरण पद चार ।
आठ चरण पद चार, छंद रोला में भावे ।
विषम चरण के अंत, दीर्घ लघु निश्चित आवे ।।
सुन लो कहे ‘रमेश’, त्रिकल सम के शुरू होला ।
चौकल सम के अंत, बने तब ना यह रोला ।।
रोला छंद की विशेषताएं-
रोला में चार पद और आठ चरण होते हैं ।
विषम चरणों 11-11 मात्राएं और सम चरणों में 13-13 मात्राएं होती हैं ।
विषम चरण का अंत गुरू-लघु होना चाहिये । कहीं-कहीं विषम चरण के अंत में नगण भी देखा गया है किन्तु गुरू लघु को श्रेष्ठ माना जाता है ।
सम चरण का प्रारंभ त्रिकल अर्थात 3 मात्रा भार से होना चाहिये ।
सम चरण का अंत चौकल अर्थात चार मात्रा से होना चाहिये । अंत में दो गुरू को श्रेष्ठ माना जाता है ।
अंत के इस चौकल में समतुकांतता होना चाहिये ।
कुण्डलियां छंद की रचना-
पहले दोहा लेना-
भारत मॉं वीरों की धरा, जाने सकल जहान ।
मातृभूमि के लाड़ले, करते अर्पण प्राण ।।
दोहा के अंतिम चरण का रोला का प्रथम चरण होना-
उपरोक्त दोहा में अंतिम चरण ‘करते अर्पण प्राण’ आया है इसलिये रोला इसी से शुरू होगा-
करते अर्पण प्राण, पुष्प सम शिश हाथ धरे ।
बन शोला फौलाद,शत्रु दल पर वार करे ।
सुनलो कहे ‘रमेश‘, देश में लिखे इबारत ।
इस धरती का नाम, पड़ा क्यों आखिर भारत ।।
पांचवें पद में कवि का नाम आना-
करते अर्पण प्राण, पुष्प सम शिश हाथ धरे ।
बन शोला फौलाद,शत्रु दल पर वार करे ।
सुनलो कहे ‘रमेश‘, देश में लिखे इबारत ।
इस धरती का नाम, पड़ा क्यों आखिर भारत ।।
दोहा के पहले शब्द या शब्द समूह से रोला का अंत होना-
दोहा का प्रथम शब्द ‘भारत’ है, इसलिये रोला का अंत ‘भारत’ से ही होगा ।
करते अर्पण प्राण, पुष्प सम शिश हाथ धरे ।
बन शोला फौलाद,शत्रु दल पर वार करे ।
सुनलो कहे ‘रमेश‘, देश में लिखे इबारत ।
इस धरती का नाम, पड़ा क्यों आखिर भारत ।।
संपर्ण कुण्डलियां-
भारत मॉं वीरों की धरा, जाने सकल जहान ।
मातृभूमि के लाड़ले,करते अर्पण प्राण ।।
करते अर्पण प्राण, पुष्प सम शिश हाथ धरे ।
बन शोला फौलाद,शत्रु दल पर वार करे ।
सुनलो कहे ‘रमेश‘, देश में लिखे इबारत ।
इस धरती का नाम, पड़ा क्यों आखिर भारत।।
मानवता, धर्म से भिन्न नहीं अपितु धर्म का अभिन्न अंग है
धर्म
धर्म एक व्यापक शब्द है जिसके लिये कहा गया है-‘धारयति इति धर्म:’ अर्थात जिसे धारण किया जाये उसे धर्म कहते हैं । अब सवाल उठता है इसे कहां और कैसे धारण किया जाये । धर्म का धारण करने का स्थान अंत:करण है । इसे अंत:करण में धारण किया जाता है । विचारों को व्यवहारिक रूप से जिया जाता है । धर्म कोई पूजा की वस्तु न होकर जीवन जीने की शैली का नाम है ।
क्या करें और क्या न करें का निर्धारक है धर्म-
जीवन में हमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये इस बात का निर्धारण कैसे किया जाये ? इस संकट का निदान केवल और केवल धर्म ही करता है । धर्म कर्म का निर्धारक है और कर्म जीवन और जीवन के बाद भाग्य का निर्धारक है । ‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करही सो तस फल चाखा’ और ‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते’ का उद्घोष हमें कर्म करनी की शिक्षा देती है । लेकिन कर्म कैसे हो तो धर्म के अनुकूल ।
समय और व्यक्ति के अनुरूप धर्म भिन्न-भिन्न हो सकता है-
धर्म अटल होते हुये भी लचिला है । प्रत्येक प्राणी का धर्म समय विशेष पर भिन्न-भिन्न होता है । यही कारण है कि जब कोई व्यक्ति किसी समय क्या करें या क्या न करें इसका फैसला नहीं कर पाता तो कहता है – ‘धर्म संकट है।’ यहां धर्म संकट है, इसका अर्थ यह कदापि नहीं होता कि धर्म को कोई संकट है । इसका अभिप्राय तो यह होता है कि उस व्यक्ति को संकट है । उसके संकट है किस धर्म का पालन करें । करने योग्य कर्म को धर्म ने पुण्य की संज्ञा दी है और न करने योग्य कर्म को पाप कहा गया है ।
धर्म कर्म करने की वरियता निर्धारित करता है-
किसी की हत्या करना धर्म के अनुसार पाप है और किसी की प्राण रक्षा करना पुण्य । किसी समय किसी व्यक्ति के प्राण रक्षा करने के लिये किसी की हत्या करना पड़े तो वह क्या करें ? यही धर्म संकट है । धर्म कर्म करने की वरियता निर्धारित करता है । इसलिये समय विशेष पर व्यक्ति विशेष का धर्म अलग-अलग होता है ।
धर्म पूजा पद्यति न होकर कर्म करने का उद्घोषक है-
समाज में यह भ्रांति देखने को मिलता है कि पूजा पद्यति का नाम ही धर्म है । यह कतई सत्य नहीं है । धर्म की सही व्याख्या समझनी है हमें हमें गीता का अध्ययन करना चाहिये । गीता पूजा करने की नहींं कर्म करने की शिक्षा देेेेेेेेती है । हमें धार्मिक ग्रंथोंं का अध्ययन इसिलये करनाचाहिये ताकि हम धर्म को अच्छे से समझ सकें । यहां धर्म को समझने से तात्पर्य केवल इतना है कि हमें उस कर्म का ज्ञान होना चाहिये जिसे परिस्थिति और समय के अनुरूप करना चाहिये । क्योंकि धर्म कर्म करने का उद्घोषक है ।
मानवता-
मानवता शब्द आज कल ट्रेण्ड कर रहा है । अपने आप को बुद्धिजीवी समझने वाले लोग अपने आप को को धर्म रहित मानवतावादी घोषित करते हुये मानवता को धर्म से भिन्न दिखाने की कुचेष्टा करते हैं जिस प्रकार हमारे देश की राजनीति में राजनेता अपने आप को धर्मनिरपेक्ष दिखाने की कुचेष्टा करते हैं । मानवता शब्द का व्यापक से व्यापक अर्थ केवल इतना ही है कि ‘ मनुष्य का जीवन मनुष्य के लिये हो ।’ जबकि धर्म केवल मानव ही नहीं प्राणीमात्र की सेवा का संदेश देती है ।
मानवता, धर्म से भिन्न नहीं धर्म का अभिन्न अंग-
मानवता कहता मनुष्यों की सेवा करो, ऊॅँच-नीच के भेद-भाव रहित, मनुष्यों का सहयोग करो । धर्म का कथन है ऊॅँच-नीच के भेद-भाव रहित प्राणी-मात्र की रक्षा और सेवा करो । तो क्या मनुष्य प्राणी नहीं है जिसके धर्म कहती है । मानवता के बिना धर्म और धर्म के बिना मानवता अपने-अपने अर्थ ही खो देंगे । मानवता धर्मरूपी तरूवर की शाखायें मात्र हैं ।
मानवता को धर्म से भिन्न दिखाने का प्रयास क्यों ?
मानवता को धर्म से भिन्न दिखाने के केवल और केवल एक ही कारण है मानसिक दासता । मुगल शासन से लेकर अंग्रेज शासन तक सभी ने हमारे संस्कार और शिक्षानीति को नष्ट करने का भरपूर प्रयास किया इसी प्रयास की परिणिति आज तक हमें मानसिक रूप से दास बनाये हुयें हैं । आजादी के पश्चात छद्म धर्मनिरपेक्षता इन मानसिक दासों को जंजीर में कैद कर लिये हैं । धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किसी धर्म विशेष की बुराई को ताकते रहते हैं और ऑंख दिखाते रहते है, वहींं यही लोग दूसरें धर्म की बुराई न दिखें इसलिये ऑंख मूंद लेते हैं ।
धर्म नहीं धर्म के अनुपालक बुरा हो सकते हैं-
धर्म केवल मानव ही नहीं प्राणीमात्र की सेवा का संदेश देती है, ये अलग बात है कि अनुपालक कितना अनुपालन करते हैं, इसमें अनुपालक दोषी हो सकता है, धर्म कदापि नहीं । मानवतावादी का व्यवहारिक पक्ष भी कोई दोष रहित है ऐसा भी नहीं है इसका अर्थ मानवतावाद बुरा है?? नहीं, कदापि नहीं । तो धर्म बुरा कैसे? धर्म में बुराई कैसी ? सारी बुराई तो अनुनायी, अनुपालकों की है । यदि कोई पूजा पद्यती को धर्म समझता है तो उसे धर्म को और समझने की जरुरत है ।
धर्म तो व्यापक है साधारण कथायें ही हमें समता का संदेश देती हैं-
हमारे अराध्य राम द्वारा शवरी का जुठन खाना, कृष्ण का ग्वालों का जूठन खाना, कृष्ण का दमयंती से विवाह करना आदि हमें छुवाछूत, ऊंच नीच का संदेश तो कदापि नहीं देती । धर्म अमर है धर्म न कभी नष्ट हुआ है और न ही होगा । उतार-चढ़ाव अवश्य संभावी है ।
हमारा प्रयास प्रतिशोधात्मक न होकर संशोधनात्मक और समानता परक होना चाहिए-
हमें धर्म के बजाये उन अनुपालकों को लक्ष्य करना चाहिए जिसके कारण धर्म में दोष का भ्रम होता है । ऐसा करते समय यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि दलित, पिछड़ा, उच्च वर्ग सभी एक समान मानव और मानवता के अधिकारी हैं, ये शब्द ही विभाजक हैं । धर्म न सही मानवता की स्थापना के लिए भी इन शब्दों के साथ जातिसूचक शब्दों का भी विलोप होना चाहिए । हमारा प्रयास प्रतिशोधात्मक न होकर संशोधनात्मक और समानता परक होना चाहिए । यदि हम सचमुच में यथार्थ मानवता लाने में सफल होते हैं तो यथार्थ धर्म भी स्थापित कर लेंगे क्योंकि मानवता धर्म का अभिन्न अंग है ।
भारतीय दर्शन के अनुसार मानव मन का क्लेश तभी दूर होता है, मन की अशांति तभी तृप्त होती है जब सत्य से परिचय होता है । सत्य तत्व का ज्ञान ही भारतीय दर्शन है । गीता में कहा गया है -”किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः” अर्थात क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये का निर्धारण सहज नहीं है, इसे तो सत्य तत्व सेे ही जाना जा सकता है । करने योग्य कार्य और न करने योग्य कार्य दोनों ही कर्म हैं और इन्हीं कर्मो से भाग्य का निर्माण होता है । कर्म एवं भाग्य का प्रभाव जीवन पर निश्चित ही दिखता है। कभी-कभी कर्म पर भाग्य प्रभावी दिखता है तो कभी-कभी भाग्य पर कर्म ! क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये इस बात को निश्चित कर लेने के पश्चात किये गये कर्म के साथ भाग्य सदैव खड़ा रहता है । भाग्य और कर्म को लेकर द्वन्द सा दिखाई देता है । कुछ लोग अपने आप को भाग्यवादी मान कर कर्म को नकारते हैं तो कुछ लोग कर्मवादी होने के नाम पर भाग्य को । एक दूसरे के अस्तित्व को नकारना उसी प्रकार है जैसे घने कुहासा या घने बादल में ढके सूर्य के अस्तित्व को नकाराना । वास्तव में दोनों का अस्तित्व हैं । हमें इन दोनों के अस्तित्व और इनके अंतर्संबंध को समझने का प्रयास करना चाहिये ।
कर्म और भाग्य में द्वन्द-
वास्तव में कर्म एवं भाग्य एक दूसरे के पूरक हैं जहां कर्म से भाग्य का निर्माण होता है वहीं भाग्य से कर्म सहज अथवा कठिन हो सकता है । दोनों एक दूसरें में अंतर्निहित हैं किन्तु अपने चारों ओर के लोगों को देखने पर इन दोनों में द्वन्द होने का आभास होता है । लोग दो भागों में बटे हुये दिखाई देते हैं- एक कर्मवादी और दूसरा भाग्यवादी । कर्मवादी कहते हैं-
उद्योगिनं पुरूषसिंहमुपैति लक्ष्मी,
दैवं हि दैवम् इति कापुरूषा वदन्ति ।
दैवं निहत्य कुरू पौरूषम् आत्मशक्त्या,
यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोअत्र दोष: ।।
-पंचतंत्र, मित्रसम्प्राप्ति
वहीं भाग्यवादी अपने पक्ष में तर्क देते हुये कहते हैं-
समुद्र-मथने लेभे हरिः, लक्ष्मीं हरो विषम्।
भाग्यं फलति सर्वत्र ,न च विद्या न पौरुषम्
कर्म क्या है ?
‘एक मनुष्य द्वारा अपने ज्ञानेन्द्रियों के ज्ञान से कर्मेन्द्रियों द्वारा किये गये प्रत्येक कार्य को ही कर्म कहते हैं ।’ जिसे दो भावों निष्काम अथवा सकाम भाव से दो रीतियों सतकर्म या कुकर्म के रूप में किया जाता है ।बिना परिणाम के कामना किये किये जाने वाले कर्म को निष्काम कर्म कहते हैं । इसमें केवल काम करना होता हैै, उसके लाभ-हानि पर कोई विचार नहीं किया जाता । किसी परिणाम की लालसा से अभिष्ट मनोरथ की सिद्धी के लिये किये जाने वाले कार्य को सकाम कर्म कहा जाता है । इसमें कर्म करने के पूर्व उसके लाभ-हानि पर भलीभांति से विचार करके ही कार्य किया जाता है । जिस कार्य के किये जाने से प्रकृति को क्षति न हो, किसी दूसरे मनुष्य अथवा जीव प्रकृति को कष्ट न हो उस कर्म को सतकर्म कहते हैं ।जिस कार्य के किये जाने से प्रकृति को हानि हो, किसी अन्य प्राणी को कष्ट हो उस कार्य को कुकर्म कहते हैं ।
मानव इन्द्रियाँ क्या है ?
मानव शरीर में मुख्य 10 अंग हैं, इन्हें ही इन्द्रियाँ कहा जाता है । इन्हें दो भागों में बाँटा गया है । पहला ज्ञानेन्द्रिय एवं दूसरा कर्मेन्द्रिय । आँख, कान, नाक, जीभ एवं त्वचा इन पाँचों को ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं क्योंकि इसी के माध्यम से जगत का ज्ञान होता है । आँख से दृश्य का रंग, बनावट आदि का, कान से ध्वनि तरंग, नाक से गंध, जीभ से रस एवं त्वचा के स्पर्श से दृश्य की प्रकृति का ज्ञान होता है । मुख, हाथ, पैर, जननअंग, और मलद्वार ये कर्मेन्द्रियाँ हैं । इन इन्द्रियों के द्वारा ही प्रत्येक कार्य संपादित होते हैं । इन्हीं अंगों की तृप्ती के लिये इन्हीं अंगों द्वारा कार्य किया जाता है ।
भाग्य क्या है ?
भाग्य कर्मो की संचित निधि है । जिस प्रकार व्यवहारिक जीवन में दो प्रकार की संपत्ती होती है । एक चल संपत्ती दूसरा अचल संपत्ती । चल संपत्ती के संचय से ही अचल संपत्ती का निर्माण होता है उसी प्रकार कर्मो के संचय होने से भाग्य का निर्माण होता है ।आय-व्यय के लेखा-जोखा जैसे ही कर्मो का भी हिसाब होता है । किये जाने वाले सतकर्म अथवा कुकर्म का लेखा-जोखा ही भाग्य का निर्माण करता है । गणितीय रूप में सतकर्म एवं कुकर्म के अंतर को ही भाग्य कहते हैं । सतकर्म से पुण्यमयी भाग्य तो कुकर्म से पापमयी भाग्य का निर्माण होता है ।
भाग्यवाद का सिद्धांत-
सतकर्म की अधिकता होने पर पुण्यमयी भाग्य एवं कुकर्म अधिक होने पर पापमयी भाग्य का निर्माण होता है । पुण्यमयी भाग्य को सौभाग्य तो पापमयी भाग्य को दुर्भाग्य की संज्ञा दी गई है । कर्मवाद के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक कर्म का भोगफल अर्थात परिणाम निश्चित है । यही भाग्य है । पुर्नजन्म सिद्धांत के अनुसार एक जीवन का कर्मफल अगले जीवन तक मिलता है, यही भाग्य है । यह अनुभवगम्य है कि कभी-कभी अल्प परिश्रम से अधिक सफलता मिल जाती है, तो कभी-कभी अधिक परिश्रम से अल्प सफलता ही मिल पाती है । जहाँ अल्प परिश्रम से अधिक सफलता मिल जाती है, वहाँ पर पुण्यमयी भाग्य का योगदान होता है, यही सौभाग्य है और जहाँ अधिक परिश्रम से अल्प सफलता ही मिल पाती हैै वहाँ पापमयी भाग्य का योगदान होता है यही दुर्भाग्य है । पहले किये गये कर्म का कर्मफल भाग्य के रूप में पहले मिलता है । बाद में किये गये कर्म का कर्मफल बाद में मिलता है । पापमयी भाग्य के परिणाम को पुण्यमयी भाग्य कम अवश्य कर सकता है समाप्त नहीं । यही भाग्यवाद का सिद्धांत है ।
भाग्य एवं कर्म में अंतर-
चूँकि भाग्य, कर्मो की संचित निधि है । अतः इसका स्वतंत्र अस्तितत्व नहीं है । भाग्य कर्मो से ही बंधा हुआ है । इसलिये ‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा’ कह कर कर्म की प्रधानता को स्वीकार किया गया है । ‘जो जस करहीं सो फल चाखा’ का अर्थ है जो जैसा करेगा वैसा ही भरेगा । यह भाग्य के प्रभाव को व्यक्त करता है कर्मफल से मनुष्य क्या देवता भी नहीं बच सकते । यहाँ तक कि स्वयं जगत नियंता बिष्णु भी कर्मफल से नहीं बच सकते ।
जलान्धर की पत्नि तुलसी का भगवान बिष्णु द्वारा लज्जाहरण किये जाने पर भगवान बिष्णु पत्थर (सालिक राम) बन कर अपने कर्मफल को भोगते हैं ।
इस कथा से कर्म का भाग्य के रूप फल की सिद्धी मिलती है
किसी-किसी कर्म का परिणाम तात्क्षणिक प्राप्त हो जाता है तो किसी-किसी का परिणाम आने में विलंब हो जाता है किन्तु परिणाम अवश्यसंभावी है । इन्हीं कर्मो का हिसाब-किताब संचित रूप में भाग्य बन कर प्रकट होते हैं ।
क्या भाग्यवादी होकर बैठे रहना उचित है ?
यदि भाग्य पर तनिक भी विश्वास करते हो तो आपको कर्म करना ही होगा क्योंकि कर्म ही तो भाग्य का भाग्यविधाता है । अच्छे भाग्य बनाने के लिये अच्छे कर्म करने ही होंगे ।यदि आप भाग्य पर विश्वास ही नहीं करते तब तो आपके पास कर्म करने के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं है । चूँकि भाग्य का निर्माण ही कर्म से होता है । अतः भाग्य के भरोसे बैठा रहना कदापि उचित नहीं है । पहले किये गये कर्मो की संचित निधि भाग्य है । यदि पहले का पापमयी भाग्य अधिक हो तो सतकर्म करके इसके प्रभाव को कम किया जा सकता है अथवा निष्प्रभावी भी किया जा सकता है ।
कर्म प्रमुख संसार में, भाग्य कर्म का सार ।
कर्म करे से भाग्य है, भाग्य कर्म उपकार ।।
अधिकांश लोगों से हम प्राय: सुनते हैं कि आज मेरा पेट साफ नहीं हुआ । मल का साफ न होना ही कब्जियत है । कब्जियत से अधिकांश लोग परेशान है । कब्ज सभी रोगों का मूल है । कहा गया है- ‘सर्वेषामेव रोगाणां निदानं कुपिता मला:’ अर्थात सभी रोगों का कारण मल का कुपित होना ही है ।
कब्ज होने का कारण –
कब्ज होने का प्रमुख कारण अनियमित खान-पान एवं अनियमित रहन-सहन दिनचर्या है, इसके अतिरिक्त इसके कारण इसप्रकार हैं-
शौच के वेग को रोकना ।
पानी कम पीना ।
समय पर भोजन न करना ।
अच्छे से चबा कर भोजन न करना ।
जल्द-जल्दी भोजन करना ।
भूख से अधिक भोजन करना ।
गरिष्ठ भोजन करना ।
नींद की कमी होना ।
मानसिक चिंता बना रहना ।
निदान
कहा जाता है कि –‘कारण ही निवारण’ है अर्थात जो जिस कारण से उत्पन्न हो, उस कारण को ही समाप्त कर दिया जाये तो उस समस्या का निदान अपने आप हो जाता है । इसलिये कब्ज से बचने के लिये सबसे पहले ये उपाय करना चाहिये-
अपनी दिनचर्या व्यवस्थित करें ।
नियत समय पर भोजन करें ।
शौच के वेग को कभी न रोकें ।
प्रतिदिन कम से कम आठ गिलास अर्थात 2 लिटर पानी अवश्य पीयें ।
भोजन अच्छे से चबा कर करें एवं भोजन करते समय पानी न पीयें ।
गरीष्ठ भोजन न करें ।
नींद अच्छे से लें ।
प्रयास करें मानसिक चिंता न हो ।
घरेलू उपचार-
कब्ज दूर करने का सर्वोत्तम उपाय बेल का सेवन है । मौसम अनुकूल यदि पका हुआ बेल उपलब्ध हो तो इसका सेवन कब्ज का रामबाण औषधी है । पक्के बेल के गुदे का सीधा-सीधा सेवन कर सकते हैं अथवा बेल के शरबत का भी सेवन कर सकते हैं । जिस समय पका बेल नहीं मिलता उस समय बेल का मुरब्बा अथवा सूखे बेल का चूर्ण भी अत्यंत लाभकारी है ।
कब्ज दूर करने में भुने हुये चने का सत्तू बहुत ही कारगर होता है । इसके लिये चने को पहले अच्छे से भुन ले फिर भुने हुये चने का पीसकर आटा बना लें । स्वादानुसार काला नमक मिले लें और इसे नित्य सुबह-शाम 50 ग्राम के अनुमान से सेवन करें ।
कब्ज अधिक हो तो हर्रा एवं ईसबगोल का मिश्रण सर्वोत्तम है । इसके लिये सबसे पहले हर्रे को एरण्ड़ के तेल में भुन लें, फिर भुनें हुये हरें का चूर्ण बना लें । इस हर्रे का चूर्ण एवं ईसबगोल की भूसी को बराबर मात्रा में मिला लें । इस मिश्रण को प्रतिदिन सोने के पूर्व एक या दो चम्मच पानी के साथ लें ।
योगासान से कब्ज दूर करना-
योगासान ही तन एवं मन से स्वस्थ रहने का एक सर्वोत्तम साधन है । भिन्न-भिन्न व्याधी के भिन्न-भिन्न योगासान कहे गये हैं । कब्ज को दूर करने के लिये निम्न आसन सुझाये गये हैं-
पश्चिमोत्तासन- इसके लिये दोनों पॉंवों को लम्बा सीधा फैलावें, फिर दोनों हाथों की अंगुलियों से दोनों पैरों के अंगुलियों को खींचकर पकड़ें, अब धीरे-धीरे अपने माथे को अपने घुटने पर लगाने का प्रयास करें । उसी क्रम में विलोम करते हुए वापस आवें ।
वज्रासन- इसके लिये घुटने के बल बैठकर, दोनों पैर के अँगूठे को जोड़ते हुये एडि़यों को फैला ले फिर फैले हुये एडि़यों के मध्य अपने नितम्भ को रखें ।
उत्तानपादासन- इसके लिये सीधे लेटकर शरीर के संपूर्ण स्नायु को ढीले कर ले, फिर दोनों पैरों को धीरे-धीरे यथा शक्ति ऊपर उठावें । प्रयास करते हुये भूमि और उठे हुये पैरों के मध्य 60 अंश का कोण बनाने का प्रयास करें । फिर उठे हुये पैर को धीरे-धीरे भूमि पर वापस रखें । यह क्रिया तीन-चार बार दोहरावें ।
जानुशिरासन – इसके लिये पहले दायें पैर को सीधा फैलायें फिर बाये पैर को की एड़ी को गुदा और अंडकोष के बीच लगायें, बायें पाद-तल से फैले हुये पैर के रान को दबावें, फिर दोनों हाथ से फैले हुये पैर की अंगुलियों को खींचें और धीरे-धीरे झुककर माथे को घुटने से लगाने का प्रयास करें । फिर इसका विलोम दूसरे पैर से यही क्रिया करें ।
पवनमुक्तासन- इसके लिये पहले एक पैर को पसार कर रखें, दूसरे पैर को घुटने से मोड़कर पेट पर लगाकर दोनों हाथों से अच्छी प्रकार दबायें । नाक को घुटनों पर लगाने का प्रयास करें । यही क्रिया दूसरे पैर से करें तत्पश्चात दोनों पैरों से यही क्रिया करें ।
मल साफ तो तन साफ
‘मल साफ तो तन साफ’ यदि कब्ज को दूर कर लिया गया तो शरीर निश्चित रूप से स्वस्थ होगा मन भी स्वस्थ रहेगा । इसलिये हमें कब्ज न हो इसके लिये गंभीर प्रयास करना ही चाहिये ।
मानसून की फुहारों से धरती की सतह नाच उठी है । चिड़िया घोसले में फुदकने में लगे हैं । मेंढक और झींगुरा मैं क्यूट कंपटीशन हो रहा है। छोटी-छोटी घास धरती की छाती से लिपटने लगे हैं । पतझड़ के पौधे फिर हरियाने लगे हैं । सुखी नदी तालाब अपनी प्यास बुझा रहे हैं ।
हमारे बच्चे चिड़ियों की तरह चहकने लगे हैं । गांव की गलियों में बच्चों का गुंजन हो रहा है। किसानों का मन मयूर की तरह नाच उठें हैं । खेतों में बीज छिटकते हुए किसानों के गीत सुनने लायक है । अभी खेतों में बुवाई का काम जोरों पर है जिधर देखो किसान के हल, ट्रैक्टर बुवाई में लगे हुए हैं ।
मानसून का महत्व-
भारतीय कृषि मानसून पर आधारित है । चाहे हजारों लाखों सिंचाई के साधन हो जाएं किंतु मानसून में वर्षा ना हो तो कृषि में सम्मत नहीं हो सकता । इस प्रकार मानसून भारतीय कृषि का बैकबोन है ।
अच्छी कृषि हो इसके लिए आवश्यक है अच्छे मानसूनी बारिश हो । मानसून की सक्रियता एटमॉस्फेयर प्रेशर पर डिपेंड करता है । इसके लिए पेड़ पौधे सहायक होते हैं । जितने ज्यादा पेड़ पौधे होंगे उतनी ही अच्छी बारिश होगी ।
अच्छी मानसून के लिए वृक्षारोपण और वृक्षों का संरक्षण आवश्यक-
मानसून का महत्व स्वयं सिद्ध है । मानसून जहां कृषि की रीढ़ है, वहीं भू-गर्भ जल स्तर को बनाए रखने के आवश्यक है । जहां हमारे लिए “जल ही जीवन है” वहीं जल के लिए मानसून जीवन है । मानसूनी वर्षा भू-सतही जल और भू-गर्भी जल दोनों के लिए ईंधन के समान है ।
मानसून के लिए हरे-भरे पेड़-पौधों का होना आवश्यक है । इसलिए केवल दिखावा के वृक्षारोपण करने से काम नहीं चलने वाला है अपितु वृक्षों का संरक्षण भी आवश्यक है । केवल जंगलों का घना होना ही आवश्यक नहीं है अपितु बसाहटों के आसपास भी अच्छी संख्या में पेड़-पौधों का होना भी आवश्यक है ।
उपसंहार-
मानसून का यह दृश्य हर व्यक्ति को आह्लादित कर रहा है । कभी रिमझिम-रिमझिम फुहारों से घर का आंगन आनंदित हो रहा है तो कभी तेज बारिश से छप्पर से पानी अंदर आ रहे हैं । क्या मनोरम दृश्य है । चारो ओर संतोष का भाव देखकर मन में संतोष हो रहा है । आखिर वर्षा से अन्न की प्राप्ति है, वर्षा से ही जल, और वर्षा से ही जीवन सुलभ है । इस बार अच्छी बारिश हो यही शुभकामना है ।
भारतीय संस्कृति में मानसिक विकास के लिए पहेली पूछना और पहेली बूझना संस्कृति विकास के प्रारंभिक काल से प्रचलन में है । किंतु इंटरनेट और सोशल मीडिया के तामझाम में नए बच्चे ऐसे खो गए हैं कि उनको इस प्रकार की संस्कृति का ज्ञान ही नहीं रह गया है ।
नए दौर में नयापन चाहिए-
आज के बच्चे क्विज हल करना जानते हैं, वीडियो गेम खेलना जानते हैं, किंतुु पारंपरिक पहेलियों की ओर उनका ध्यान नहीं जाता ।
नया समय, नया दौर, नए बच्चे नयापन मांगते हैं । पारंपरिकता को यदि नए जमानेेेे तक पहुंचाना हो तो उसमें नयापन लाना होगा । इसी सिद्धांत के आधार पर मैंं आज प्राचीन विधा पहेली को नये परिधान में प्रस्तुत कर रहा हूं ।
पहेली कहते किसे हैं ?
इस बीच हम देखते हैं कि पहेली कहते किसे हैं ? प्रचलित पहेलियां काव्यात्म्म्मक रूप में शब्दों का ऐसा जाल होता है जिसमें उस वस्तु के प्रमुख गुणों को बुना जाता हैै जिससे उसका पहचान हो सके ।
पहेली बुझते कैसे हैं ?
पहेली बुुझने केे लि पहले दिए गए पहेली को सावधानी पूर्वक बार-बार पढ़ते हैं और उस में उल्लेखित गुणोंं को समझने का प्रयास करते हैं । बार-बार ध्यान देने सेेे उस वस्तु की पहचान हो जाती है ।
प्रस्तुत है मेरे ही द्वारा रचित कुछ नई पहेलियांं-
पीछा करता कौन वह, जब हों आप प्रकाश । तम से जो भय खात है, आय न तुहरे पास ।।
श्वेत बदन अरु शंकु सा, हरे रंग की पूंछ । सेहत रक्षक शाक है, सखा पहेली बूझ ।
काष्ठ नहीं पर पेड़ हूँ, बूझो मेरा नाम । मेरे फल पत्ते सभी, आते पूजन काम ।।
बाहर से मैं सख्त हूँ, अंतः मुलायम खोल । फल मैं ऊँचे पेड़ का, खोलो मेरी पोल ।।
कान पकड़ कर नाक पर, बैठा कौन महंत । दृष्टि पटल जो खोल कर, कार्य करे ज्यों संत ।।
तरुण लड़कपन में हरी, और वृद्ध में लाल । छोटी लंबी तीक्ष्ण जो, करती खूब कमाल ।।
फले कटीले वृक्ष पर, जिनकी खोल कठोर । बीज गुदे में है गुथे, करे कब्ज को थोर ।।
-रमेश चौहान
जरा सोचिए, सोचने से मस्तिष्क का व्यायाम होता है । जिस प्रकार शारीरिक व्यायाम शरीर के लिए लाभदायक होता है ठीक उसी प्रकार पहेलियां भी मस्तिष्क के लिए लाभदायक होता है । अंत में इसका उत्तर दूंगा । अभी कुछ प्रयास कीजिए । ऐसे भी ये पहेलियां अत्यंत सहज सरल और सुलभ है ।
इंटरेनेट के जमाने में केवल संचार साधनों, पत्र-व्यवहार के रूपों में ही परिवर्तन नहीं हुआ अपितु काम करने के ढंग में भी परिवर्तन हो गया है । उद्याेगों में, कार्यालयों में सभी स्थानों पर इंटरनेट, ऑनलइन काम प्रारंभ हो गये हैं ।
मजेदार बात तो यह है कि अब कोई भी, कहीं भी घर बैठे ही केवल अपने मोबाइल की सहायता से काम करके इंकम कर सकता है । चूंकि किसी भी बात का प्रचार धीरे-धीरे होता है जब काम अधिक और काम करने वाले कम होते हैं, तो स्वभाविक रूप से उसे इंकम भी अधिक होता है किन्तु जैसे-जैसे काम करने वालों की संख्या बढ़ने लगती है तो इंकम भी कम होने लगता है ।
आज लॉकडाउन की स्थिति ने अधिकांश लोगों को ऑनलाइन इंकम की ओर आकिर्षित किया है और काम करने वालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है और इस अनुपात में लॉकडाउन के ही कारण काम करने के अवसर कम हुये हैं । यदि आप ऑनलाइन इंकम करने का सोच रहे हैं तो पहले आपको कुछ प्रश्नों के जवाब पता होना चाहिये-
ऑनलाइन इंकम क्या हैं ?
जब हमें काम करने के लिये कहीं जाने की आवश्यकता नहीं होती अपितु काम ही चल कर हमारे पास आ जाता है ऑनलाइन । तब हम किसी के लिये ऑनलाइन पर कुछ काम करते हैं, उसके एवज में वह हमें कुछ राशि का भुगतान करता है । यही ऑनलाइन इंकम है ।
ऑनलाइन इंकम क्यों होता है ?
यह समय विज्ञान के साथ-साथ विज्ञापन और प्रचार का भी है इन दोनों के ही कारण यह इंकम होता है । विज्ञान के कारण इस लिये कि विज्ञान की देन ऑनलाइन की सहायता कोई आपके स्कील को खरीदता और आपको मेहताना देता है । इसमें क्या होता है कि काम देने वाले को अपने लिये कर्मचारी सेलरीबेस पे रखने की आवश्यकता नहीं होती और जब काम की आवश्यकता होती है, तो ऑनलाइन अपने योग्य हुनरमंद व्यक्ति को खोज कर काम दे देता है इससे उसे भी लाभ होता है और काम करने वाले को भी घर बैठे काम मिल जाता है ।
बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने उत्पाद के विज्ञापन और प्रचार करने के लिये बहुत बड़ी राशि खर्च करती हैं, इन्हीं राशियों को वह ऑनलाइन विज्ञापन में लगा देती हैं, अपने विज्ञापन पढ़ने अथवा देखने केेि लिये पैसा देती हैं ।
ऑनलाइन इंकम किन-किन रूपों में होता है ?
ऑनलाइन इंकम प्रायः तीन रूपों में होता है-
वर्चुवल, एक्सचेंज और रियल
वर्चुवल (आभासी)-ज्यादातर ऑनलाइन इंकम प्रोवाइडर इसी प्रकार का इंकम देती हैं । इसमें सर्विस प्रोवाइडर एक पाइंट निर्धारत करता है, जिसे अपने सुविधानुसार कुछ निश्चित नाम देकर रखे हैं जैसे-पाइंट, सिक्का, क्राउजर आदि । जब यह एक निर्धारित स्तर तक पहुॅच जाता तो इसे प्रोडक्ट या वास्तविक पैसे में एक्सचेंज किया जा सकता है ।
एक्सचेंज-इस प्रकार के इंकम आपको पैसा के बदले ऑनलाइन प्रोडक्ट ही खरीद सकते हैं । नगद प्राप्त नहीं कर सकते ।
रियल इंकम- इस प्रकार के इंकम में वास्तविक रूप से नगद प्राप्त कर सकते हैं ।
ऑनलाइन इंकम कहां-कहां से होता है ?
ऑनलाइन इंकम ऑनलाइन के दोनों प्रमुख साधनों अर्थात मोबाइल एप एवं बेबसाइट से होता है । बहुत सारे मोबाइल एप है जो आपको इंकम करने का अवसर देती है, इसी प्रकार बहुत सारे वेबसाइट भी हैं । इसके अलवा आप स्वयं के वेबसाइट, ब्लॉग, एप, विडियों बना कर भी ऑनलाइन इंकम कर सकते हैं ।
ऑनलाइन इंकम कैसे होता है ?
ऑनलाइन इंकम मुख्य रूप से तीन प्रकार से होता है- पहला स्कीलबेस्ड, दूसरा टास्क बेस्ड और तीसरा सेल्फ बेस्ड स्वयं सर्विस प्रोवाइडर बनकर।
स्कील बेस्ड-
स्कील बेस्ड इंकम आप अपने कुछ स्कील जैसे वेबलिजाइनिंग, कांटेंट राइटिंग के बदौलत प्राप्त करते है । इसमें वेबसाइड एक प्लेटफार्म के रूप में कार्य करता है, जहां काम देने वाला और काम करने वाला दोनों एक साथ आते हैं, काम देना वाला अपना काम एक प्रोजेक्ट के रूप में विवरण सहित प्रस्तुत करता है, काम करने वाला उसके प्रोजेक्ट पर अपना बोली लगता है जिसमें वह अपने स्कील के बारे बताता है, काम का दाम बताता है । अनेक बोलियों से काम लेना वाला अपने अनुरूप काम करने वाले का चयन कर लेता है ।
टास्क बेस्ड इंकम-
टास्क बेस्ड इंकम-इसमें सर्विस प्रोवाइडर काम करने वाले को एक टास्क उपलब्ध कराता है यह कई रूपों में हो सकता है जैसे-गेम खेलना, क्विज खेलना, एड़ देखना, विडियों देखना, केप्चा पूरा करना, सर्वे पूरा करना आदि । इन टास्कों को पूरा करके पैसा कमाया जा सकता है ।
सेल्फ बेस्ड
स्वयं के बेबसाइट या ब्लॉग और यूट्यूब पर एडसेंस जैसे विज्ञापन दाता के विज्ञापन चलाकर इंकम कर सकते हैं । सबसे प्रभावी तरीका एफलियेट मार्केटिंग है, जिसमें आनलाइन सेलर के प्रोडक्ट का प्रचार करके कमीषन के रूप में इंकम कर सकते हैं ।
किस काम को करने से परिश्रम के अनुरूप इंकम होता है ?
यह प्राकृतिक सत्य है बिना कुछ किये कभी न कुछ मिला है न कभी कुछ मिलेगा । इंकम करने के लिये मेहनत तो करना ही होगा । जिसमें ज्यादा समय और ज्यादा परिश्रम लगाया जाता है वहां ज्यादा इंकम भी होता है । ऑनलइन के तीनों प्रकार के काम करने के तरीकों को इंकम की दृष्टिकोण से देखते हैं –
सेल्फ बेस्ड-सेल्फबेस्ड स्वयं पर निर्भर है इसलिये निश्चित रूप से इंकम का सबसे बड़ा साधन यही है । किन्तु ध्यान रखना होगा इसी में सबसे ज्यादा समय देने की भी आवश्यकता होती है । प्रारंभ में कोई इंकम नहीं होता किन्तु एक बार स्थापित हो जाने के पश्चात अच्छा खासा इंकम होती है । निश्चित रूप से इसमें परिश्रम के अनुरूप इंकम होता है किन्तु इसमें बहुत लंबी प्रतिक्षा करनी होती है । किसी-किसी की प्रतिक्षा इतनीं लंबी हो जाती है कि वह टूटने लगता है ।
स्कील बेस्ड- स्कील बेस्ड कुछ समय के संघर्ष के पश्चात एक अच्छा इंकम देता है । इसके लिये आवश्यक आप अपने आप में कुछ न कुछ स्कील जरूर पैदा करें । अपने आप स्कील पैदा करने और उसे बढ़ाने के लिये ऑनलाइन बहुत से सर्विस भी उपलब्ध हैं, सबसे अच्छा साधन यूट्यूब का निःशुल्क विडियों हैं, जहां आप कई स्कील सीख सकते हैं । निश्चित रूप से इसमें परिश्रम के अनुकूल इंकम होता है ।
टास्क बेस्ड-यह सर्वाधिक लोंगों द्वारा उपयोग में लाई जाती है क्योंकि इसमें कुछ भी प्रतिक्षा नहीं करना होता सीधे-सीधे टास्क को पूरा करना प्रारंभ करते हैं और इंकम करने लगते हैं न ही इसमें कोई विषेश स्कील ही आवश्यकता होती, विज्ञापन देखना, पढ़ना, लिंक शेयर करना जैसे आसान काम होते हैं । कितु यह कार्य बहुत उबाऊ होता है । 7-7, 8-8 घंटे का समय देकर बमुश्किल 100-200 रूपय से अधिक नहीं कमाया जा सकता । निःसंदेह इसमें परिश्रम के अनुकूल इंकम नहीं हो पाता ।
क्या इससे केवल समय की बर्बादी तो नहीं ?
यदि आप इस काम के लिये गंभीर नहीं हैं तो िनिश्चित रूप से यह समय की ही बर्बादी है । क्योंकि बैठे-बैठे कभी भी, किसी को कुछ नहीं मिलता । यदि आप पूरे लगन से गंभीर होकर काम करें तो इसमें आपके द्वारा व्यतित हर क्षण का एक न एक दिन लाभ अवश्य होगा । बिना किसी योजना के, बिना किसी स्कील के काम ज्यादा दिन तक चल नहीं सकते इसलिये बिना योजना और बिना स्कील के किये काम में समय बर्बादी तो होगा ही । यहाँ योजना से अभिप्राय अपनी क्षमता को परख कर निश्चित स्कील को प्राप्त करना फिर उसका उचित ढंग उपयोग करना है, पूरा कार्य एक प्रबंधन की तरह होना चाहिये ।
यहाँ काम करने के लिये क्या करना चाहिये ?
सबसे पहले अपने आप का खोज करना चाहिये । अपने आप से वह क्षमता खोज कर निकालना चाहिये जिसे आप किसी स्कील में परिवर्तित कर सकते हैं । दूसरा काम अपने स्कील को सीखना, अभ्यास करना और उस स्कील का उपयोग करके निखारना चाहिये । आप स्कील को यहां आनलइन ही सीख सकत हैं । अपने स्कील के वेब सर्च या विडियों सर्च करे और तब तक करे जब तक आपके लिये संतोशप्रद न हो जाये । तीसरा काम अपनी रूचि एवं क्षमता के अनुरूप काम के लिये उचित प्लेटफार्म का निर्धारण करना । इसे भी सर्च से प्राप्त कर सकते हैं किन्तु ध्यान रखें किसी भी प्लेटफार्म के बारे जानते ही उसमें एकाउन्ट न बनाये अपितु उस प्लेटफार्म का रिव्यू चेक करें, उसमें काम कर चुके व्यक्तियों का विडियों देखें, उनके अनुभवों के समझें । जब आप अच्छे से संतुश्ट हो जाये कि यह प्लेटफार्म मेरे स्कील के अनुरूप है तभी एकाउन्ट बनाये और काम करें ।
अंत में यही कहना चाहूँगा कि अपनी क्षमता को परखिये, अपने लिये स्कील बनायें, फिर योजनाबद्ध तरीके से ऑनलाइन इंकम के क्षेत्र में कदम रखें सफलता जरूर मिलेगी अन्यथा इसमें समय और परिश्रम के बर्बादी के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होगा ।