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अनुष्टुप छंद एक वैदिक वार्णिक छंद है । इस छंद को संस्स्कृत में प्राय: श्लोक कहा जाता है या यों कहिये श्लोक ही अनुष्टुप छंद है । संस्कृत साहित्य में सबसे ज्यादा जिस छंद का प्रयोग हुआ है, वह अनुष्टुप छंद ही है ।
अनुष्टुप छंद का विधान-
अनुष्टुप छंद 4 चरणों एवं दो पदों का वार्णिक छंद हैं जिसके प्रत्येक चरणों में 8-8 वर्ण होते हैं । इन आठ वर्णो में गुरू-लघु का नियम होता है । संस्कृत में तुक की अनिवार्यता नहीं थी, हिन्दी में तुक का ज्यादा प्रचलन है इसलिये इस छंद में तुकांत को ऐच्छिक रखा गया चाहे रचनाकार तुकांत रखे चाहे तो न रखें । इसके नियम को निम्नवत रेखांकित किया जा सकता है-
विषम चरण – वर्ण क्रमांक पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ क्रमशः लघु, गुरू, गुरू, गुरू
सम चरण – वर्ण क्रमांक पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ क्रमशः लघु, गुरू, लघु, गुरू
तुकांतता-ऐच्छिक
अनुष्टुप छंद की परिभाषा अनुष्टुप छंद में-
आठ वर्ण जहां आवे, अनुष्टुपहि छंद है ।
पंचम लघु राखो जी, चारो चरण बंद में ।।
छठवाँ गुरु आवे है, चारों चरण बंद में ।
निश्चित लघु ही आवे, सम चरण सातवाँ ।।
अनुष्टुप इसे जानों, इसका नाम श्लोक भी ।
शास्त्रीय छंद ये होते, वेद पुराण ग्रंथ में ।।
-रमेश चौहान
अनुष्टुप छंद का उदाहरण-
राष्ट्रधर्म कहावे क्या, पहले आप जानिये ।
मेरा देश धरा मेरी, मन से आप मानिये ।।
मेरा मान लिये जो तो, देश ही परिवार है ।
अपनेपन से होवे, सहज प्रेम देश से ।।
सारा जीवन है बंधा, केवल अपनत्व से ।
अपनापन सीखाये, स्व पर बलिदान भी ।।
सहज परिभाषा है, सुबोध राष्ट्रधर्म का ।
हो स्वभाविक ही पैदा, अपनापन देश से ।।
अपनेपन में यारों, अपनापन ही झरे ।
अपनापन ही प्यारा, प्यारा सब ही लगे ।।
अपना दोष औरों को, दिखाता कौन है भला ।
अपनी कमजोरी को, रखते हैं छुपा कर ।।
अपने घर में यारों, गैरों का कुछ काम क्या ।
आवाज शत्रु का जो हो, अपना कौन मानता ।।
होकर घर का भेदी, अपना बनता कहीं ।
राष्ट्रद्रोही वही बैरी, शत्रु से मित्र भी बड़ा ।।
-रमेश चौहान
सरसी छंद एक बहुत ही लोकप्रिय छंद है। जहां भोजपुरी भाषाई क्षेत्र में सरसी छंद में होली गीत गाए जाते हैं वहीं छत्तीसगढ़ के राउत समुदाय द्वारा इसे एक लोक नृत्य लोकगीत के रूप में राउत दोहा के रूप में प्रयोग किया जाता है । इस प्रकार यह सरसी छंद लोक छंद के रूप में भी प्रचलित है ।
सरसी छंद का विधान
सरसी छंद चार चरणों का एक विषम मात्रिक छंद होता है । सरसी छंद में चार चरण और 2 पद होते हैं । इसके विषम चरणों में 16-16 मात्राएं और सम चरणों में 11-11 मात्राएं होती हैं । इस प्रकार सरसी छंद में 27 मात्राओं की 2 पद होते हैं । सरसी छंद का विषम चरण ठीक चौपाई जैसे 16 मात्रा की होती है और यह पूर्णरूपेण चौपाई के नियमों के अनुरूप होती है ।वहीं इसका सम चरण दोहा के सम चरण के अनुरूप होती है, दोहा के समय चरण जैसे ठीक 11 मात्रा और अंत में गुरु लघु ।
सरसी छंद की परिभाषा सरसी छंद में
चार चरण दो पद में होते, सोलह-ग्यारह भार । लोकछंद सरसी है प्रचलित, जन-मन का उपहार ।।
विषम चरण हो चौपाई जैसे, सम हो दोहा बंद । सोलह-ग्यारह मात्रा भार में, होते सरसी छंद ।।
होली गीत कहीं पर गाते, गाकर सरसी छंद । राउत दोहा नाम कहीं पर, लोक नृत्य का कंद ।।
सरसी छंद में होली गीत
चुनावी होली (सरसी छंद)
जोगीरा सरा ररर रा वाह खिलाड़ी वाह.
खेल वोट का अजब निराला, दिखाये कई रंग । ताली दे-दे जनता हँसती, खेल देख बेढंग ।। जोगी रा सरा ररर रा, ओजोगी रा सरा ररर रा
जिनके माथे हैं घोटाले, कहते रहते चोर । सत्ता हाथ से जाती जब-जब, पीड़ा दे घनघोर ।। जोगी रा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
अंधभक्त जो युगों-युगों से, जाने इक परिवार । अंधभक्त का ताना देते, उनके अजब विचार ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
बरसाती मेढक दिखते जैसे, दिखती है वह नार । आज चुनावी गोता खाने, चले गंग मजधार ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
मंदिर मस्जिद माथा टेके, दिखे छद्म निरपेक्ष। दादा को बिसरे बैठे, नाना के सापेक्ष ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
दूध पड़े जो मक्खी जैसे, फेक रखे खुद बाप । साथ बुआ के निकल पड़े हैं, करने सत्ता जाप ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
इक में माँ इक में मौसी, दिखती ममता प्यार । कोई कुत्ता यहाँ न भौके, कहती वह ललकार ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
मफलर वाले बाबा अब तो, दिखा रहे हैं प्यार । जिससे लड़ कर सत्ता पाये, अब उस पर बेजार ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
पाक राग में राग मिलाये, खड़ा किये जो प्रश्न । एक खाट पर मिलकर बैठे, मना रहे हैं जश्न ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
नाम चायवाला था जिनका, है अब चौकीदार । उनके सर निज धनुष चढ़ाये, उस पर करने वार ।। जोगीरा सरा ररर रा ओ जोगी रा सरा ररर रा
सरसी छंद में राउत दोहा
हो--------रे----
गौरी के तो गणराज भये(हे य)
(अरे्रे्रे) अंजनी के हनुमान (हो, हे… य)
कालिका के तो भैरव भये (हे… )
हो…….ये
कोशिल्या के राम हो (हे… य)
आरा्रा्रा्रा्रा्रा्रा
दारु मंद के नशा लगे ले (हे… य)
मनखे मर मर जाय (हे… य)
जइसे सुख्खा रुखवा डारा,
लुकी पाय बर जाय (हे… य)
हो्ये ...ह….
बात बात मा झगड़ा बाढ़य (हे… य)
(अरे् )पानी मा बाढ़े धान (हे… य)
तेल फूल मा लइका बाढ़े,
खिनवा मा बाढ़े कान (हे… य)
हो…….ओ..ओ
नान-नान तैं देखत संगी (हे… य)
झन कह ओला छोट (हे… य)
मिरचा दिखथे भले नानकुन,
देथे अब्बड़ चोट ।।(रे अररारारा)
आरा्..रा्रा्रा्रा्रा्रा
लालच अइसन हे बड़े बला (हे… य)
जेन परे पछताय रे (हे… य)
फसके मछरी हा फांदा मा,
जाने अपन गवाय रे (अररारारा)
सरसी छंद के कुछ उदाहरण
कानूनी अधिकार नहीं
है बच्चों का लालन-पालन, कानूनी कर्तव्य । पर कानूनी अधिकार नही, देना निज मंतव्य ।।
पाल-पोष कर मैं बड़ा करूं, हूँ बच्चों का बाप । मेरे मन का वह कुछ न करे, है कानूनी श्राप ।।
जन्म पूर्व ही बच्चों का मैं, देखा था जो स्वप्न । नैतिकता पर कानून बड़ा, रखा इसे अस्वप्न ।।
दशरथ के संकेत समझ तब, राम गये वनवास । अगर आज दशरथ होते जग, रहते कारावास ।।
नया दौर नया जमाना
नया जमाना नया दौर है, जिसका मूल विज्ञान। परंपरा को तौल रहा है, नया दौर का ज्ञान ।
यंत्र-तंत्र में जीवन सिमटा, जिसका नाम विकास । सोशल मीडिया से जुड़ा अब, जीवन का विश्वास ।
एक अकेले होकर भी अब, रहते जग के साथ । शब्दों से अब शब्द मिले हैं, मिले न चाहे हाथ ।
पर्व दिवस हो चाहे कुछ भी, सोशल से ही काम । सुख-दुख का सच्चा साथी, यंत्र नयनाभिराम ।
मोबाइल हाथों का गहना, टेबलेट से प्यार । कंप्यूटर अरु लैपटॉप ही, अब घर का श्रृंगार ।
राष्ट्र धर्म ही धर्म बड़ा है
राष्ट्र धर्म ही धर्म बड़ा है, राष्ट्रप्रेम ही प्रेम । राष्ट्र हेतु ही चिंतन करना, हो जनता का नेम ।
राष्ट्र हेतु केवल मरना ही, नहीं है देश भक्ति । राष्ट्रहित जीवन जीने को, चाहिए बड़ी शक्ति ।
कर्तव्यों से बड़ा नहीं है, अधिकारों की बात । कर्तव्यों में सना हुआ है, मानवीय सौगात ।
अधिकारों का अतिक्रमण भी, कर जाता अधिकार । पर कर्तव्य तो बांट रहा है , सहिष्णुता का प्यार ।
राष्ट्रवाद पर एतराज क्यों, और क्यों राजनीति । राष्ट्रवाद ही राष्ट्र धर्म है, लोकतंत्र की नीति ।।
राष्ट्रवाद ही एक कसौटी, होवे जब इस देश । नहीं रहेंगे भ्रष्टाचारी, मिट जाएंगे क्लेश ।। -रमेश चौहान
1.नम्रता और स्नेहार्द्र वक्तृता केवल यही मनुष्य के आभूषण हैं और कोई नहीं ।
2. अधर्म द्वारा एकत्र की हुई सम्पत्ती की अपेक्षा तो सदाचारी पुरूष की दरिद्रता कहीं अच्छी है ।
3. जिन कर्मो में असफलता अवश्यसंभावी है, उसे संभव कर दिखाना और विध्न-बाधाओं से न डर कर अपने कर्तव्य पर डटे रहना प्रतिभा शक्ति के लिये दो प्रमुख सिद्धांत हैं ।
4. लोगों को रूलाकर जो सम्मपत्ती इकट्ठी की जाती है, वह क्रन्दन ध्वनि के साथ ही विदा हो जाती है, मगर जो धर्म द्वारा संचित की जाती है, वह बीच में ही क्षीण हो जाने पर भी अंत में खूब फलती-फूलती है ।
5. यदि तुम्हारे विचार शुद्ध और पवित्र है और तुम्हारी वाणी में सहृदयता है, तो तुम्हारी पाप वृत्ति का स्वयमेव क्षय हो जायेंगे ।
6. सत्पुरूषों की वाणी ही वास्तव में सुस्निग्ध होती है । क्योंकि दयार्द्र कोमल और बनावट से रहित होती है ।
7. लक्ष्मी ईर्ष्या करने वालों के पास नहीं रह सकती । वह उसको अपनी बड़ी बहन दरिद्रता के हवाले कर देती है ।
8. मीठे शब्दों के रहते हुए भी जो मनुष्य कड़वे शब्द का प्रयोग करता है, वह मानों पक्के फल को छोडकर कच्चा फल खाना चाहता है ।
1. मन से काम 'रमेश' कर, कहते है हर कोय ।
मन से गिरि रज होत हैं, सागर कूप स होय ।।
2. कर्म भाग्य का मूल है, कर्म आपके हाथ ।
अपना कर्म 'रमेश' कर, मिले भाग्य का साथ ।।
3. गिर-गिर कर चलना सिखे, अटक-अटक कर बोल ।
डरना छोड़ 'रमेश' अब,, कोशिश कर दिल खोल ।।
4. खुले नयन के स्वप्न को, स्वप्न सलौने मान ।
कर साकार 'रमेश' अब,, मन में पक्का ठान ।।
5. सीख छुपा है भूल में, कर लो भूल सुधार ।
किए न यत्न 'रमेश' यदि, यही तुम्हारी हार ।।
6. स्वाद 'रमेशा' भूख में, नहीं स्वाद में भूख ।
भूख जीत की हो अगर, सुनें जीत की कूक ।।
7. अगर सफल होना तुम्हें, लक्ष्य डगर संधान ।
मन के हर भटकाव को, रोक रखो 'चौहान' ।।
8. अपनी रेखा दीर्घ कर, होगी उसकी छोट ।
अपना काम 'रमेश' कर, मन में ना रख खोट ।।
9. कोशिश करो 'रमेश' तुम, कोशिश से ना हार ।
कोशिश-कोशिश से तुम्हें, जीत करेगी प्यार ।।
10. होना सफल 'रमेश' यदि, बुनों योजना एक ।
मान योजना को राह तुम, चले चलों बिन ब्रेक ।।
जवानी के दोहे-
11. अरे 'रमेशा' युवक तुम, समझ युवक का अर्थ ।
जीवन की बुनियाद तुम, रित ना जावो व्यर्थ ।।
12. अगर 'रमेशा' तुम युवा, रखो जोश में होश ।
देह प्रेम के फेर में, रहो न तुम बेहोश ।।
13. काम काम के भेद को, ध्यान करो 'चाैहान' ।
काम वासना ही नहीं, काम कर्म की खान ।।
14. अगर 'रमेशा' पेड़ तुम, बचपन कली बलिष्ट ।
जवा-जवानी पुष्प है, मधु फल जरा विशिष्ट ।।
15. जीवन पथ यदि वृक्ष हो, आयु युवा है फूल ।
फूल वृक्ष से टूट कर, बन जाते हैं धूल ।।
गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस को ‘छहो शास्त्र सब ग्रंथन का रस’ कहा गया है अर्थात रामचरित मानस एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें सभी वेदों, पुराणों, एवं शास्त्रों का निचोड़ है । जीवन के हर मोड़ के लिये यह एक पदथप्रदर्शक के रूप में हमें दिशा देती है । इसी रामचरित मानस के प्रथम सोपान बालकाण्ड के दोहा संख्या 6 से दोहा संख्या 7 साधु असाधु में भेद और कुसंग और सुसंग का व्यापक व्याख्या है । आज संगति पर विचार समिचिन लग रहा है ।
‘हानि कुसंग सुसंगति लाहू’ – गोस्वामी तुलसीदास
जड़ चेतन गुन दोष मय-
रामचरित मानस के प्रथम सोपान बालकाण्ड़ के दोहा संख्या 6 में गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं-
करतार अर्थात ब्रम्हा ने विश्व को गुण और दोष युक्त जड़ और चेतन की रचना की है । जो लोग संत होते हैं, वे हंस जैसे केवल दूध रूपी गुण को ग्रहण करते हैं और पानी रूपी बिकार अर्थात दोष को छोड़ देते हैं ।
गुणार्थ-
‘बिधि प्रपंच गुन अवगुन साना’ विधाता ने माया में गुण और अवगुण मिला दिया है । अब इस गुण और अवगुण के मिश्रण गुण को पृथ्क करने का सामर्थ्य तो केवल संत में है । संत ही हैं जो आम जन को इस माया से गुण को अलग करके देता है ।
यहॉं संत को परिभाषित किया गया है कि संत वहीं हैं जो गुण अवगुण युक्त माया से केवल गुण को पृथ्क करने का सामर्थ्य रखता है ।
अस बिबेक जब देइ बिधाता-
अस बिबेक जब देइ बिधाता । तब तजि दोष गुनहिं मनु राता
अर्थ-
ऐसा विवेक, ऐसी बुद्धि जब विधाता दें, तभी दोष छोड़ कर मन गुण में रत रह सकता है ।
गुणार्थ-
ऐसा विवेक अर्थात हंस जैसा विवेक गुण और अवगुण को अलग करने की सामर्थ्ययुक्त बुद्धि एक तो विधाता दे सकते हैं दूसरा सत्संग से प्राप्त किया जा सकता है । यदि आप स्वयं हंस नहीं है तो दूध और पानी को अलग नहीं कर सकते किन्तु आप यदि इनका बिलगाव चाहते हैं तो हंस का सहयोग लेना ही होगा । ठीक इसी प्रकार यदि हम माया से गुण दोष को अलग नहीं कर सकते तो हंस रूप संत का संतसंग करके गुण दोष को पृथ्क कर सकते हैं ।
काल सुभाउ करम बरिआई-
काल सुभाउ करम बरिआई । भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई
अर्थ-
काल अर्थात समय के स्वभाव से और कर्म की प्रबलता से प्रकृति अर्थात माया के वशीभूत होकर भले लोग भी भलाई करने से चुक जाते हैं ।
गुणार्थ-
‘काल, करम गुन सुभाउ सबके सीस तपत’ सभी प्राणियों शिश पर पर काल और कर्म का प्रभाव उपद्रव करते फिरता है इस प्रभाव से एक आवरण पड़ जाता है जिससे भले लोग भी भलाई करने से चूक जाते हैं अर्थात गुण और अवगुण में भेद नहीं कर सकते । इसका सरल उपाय गोस्वामीजी स्वयं देते हैं- ‘काल धर्म नहिं व्यापहिं ताहीं । रघुपति चरन प्रीति अति जाहीं” काल और कर्म के प्रभाव से जो आवरण बन जाता है उस आवरण को केवल और केवल रघुपति के चरण पर प्रीति रखने से नष्ट किया जा सकता है ।
काल और कर्म के प्रभाव जो भलाई करने से चूक जाते हैं, इस चूक को हरिजन अर्थात ईश्वर भक्त सुधार लेते हैं । अपने चूक को सुधारते हुये ऐसे लोग दुख और दोष का दमन करके विमल यश को देते हैं ।
गुणार्थ-
ल सुधार की शक्ति केवल हरिभक्त के पास है । गोस्वामीजी कहते हैं-‘नट कृत कपट बिकट खगराया । नट सेवकहिं न ब्यापहिं माया’ अर्थात इस सृष्टि के नट अर्थात ईश्वर द्धारा बनाया गया माया विकट है, यदि उस नट की सेवारत रहा जाये तो यह विकटता उसे नहीं व्यापता । काल कर्म का प्रभाव तो होगा उसका भोग देह को भी होगा किन्तु मन को नहीं क्योंकि -‘मन जहँ जहँ रघुबर बैदेही । बिनु मन तन दुख सुख सुधि केहि’ जब मन ईश्वर भक्ति में लगा हो तो बिना मन के तन को होने वाले सुख दुख की अनुभूती ही किसे होगी ?
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू-
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू । मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू
अर्थ-
खल भी अच्छी संगती पाकर भलाई करने लगते हैं किन्तु उनके मन का स्वभाव मिटता नहीं जैसे ही वह कुसंग के प्रभाव में आता है भलाई करना छोड़ देता है ।
गुणार्थ-
संत और खल दोनों का स्वभाव स्थिर रहता है किन्तु दोनों में एक भेद है संत भलाई करने के गुण को किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ता वहीं खल परिस्थिति के अनुसार बदल जाते हैं जब सुसंग का प्रभाव होता है वह भलाई करने लगते किन्तु कुसंग के प्रभाव में आते ही अपने मूल स्वभाव के अनुसार भलाई करना छोड़ देता है ।
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ-
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ । बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ
उघरहिं अंत न होइ निबाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू
अर्थ-
दुनिया में जो बंचक अर्थात कपटी हैं सुंदर वेष अर्थात साधु के वेष को धारण करने के कारण केवल वेष के प्रभाव से पूजे जाते हैं । जो कपटी केवल सुंदर वेष के कार पूजे जाते हैं अंत उनका कपट खुल ही जाता है जिस प्रकार हनुमान के पथ के बाधा बने कपटी साधु कालनेमी, सीताहरण के साधु बने रावण और अमृतपान करने दैत्य राहू का कपटी देव रूप का भेद खुल गया ।
गुणार्थ-
छद्म का आज नहीं कल पर्दाफााश होना ही होना है । इसलिये बनावटी चरित्र का दिखावा न करें अपितु अपने चरित्र में परिवर्तन लावें । यह परिवर्तन केवल सुसंग अच्छे लोगों की संगति में बने रहने से ही संभव है । अपने मानसिक शक्ति में व;द्धि करने के लिये अपने आत्मबल को जागृत करने के लिये सही संगत का चयन कीजिये ।
कुसंग से हानि और सुसंग से लाभ होता है । इस बात को सभी कोई जानते हैं हमारे वेदों ने भी इसी बात का उपदेश किया है ।
गुणार्थ-
वेदों द्वारा अनुमोदित इस तथ्य को सभी जानते हैं कि कुसंग से केवल नुकसान ही होता और सुसंग केवल लाभ ही लाभ । जानते तो सभी कोई हैं किन्तु इस बात अंगीकार करने वाल विरले ही हैं । विरले ही लोग साधु होते हैं, इन्हें ही संत की संज्ञा दी जाती है ।
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा-
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलइ नीच जल संगा
अर्थ-
तुलसीदास धूल की संगति का उदाहरण देते हुये कहते हैं कि धूल वही किन्तु संगति के प्रभाव से उसका महत्व अलग-अलग हो जाता है । जब धूल वायु के संपर्क में आता है तो वायु के साथ मिलकर आकाश में उड़ने लगता है किन्तु जब वही धूल जल की संगति करता है किचड़ बन कर पैरों तले रौंदे जाते हैं ।
गुणार्थ-
जब धूल जल के साथ मिलकर कीचड़ बन जाता है तो उस कीचड़ को पवन उड़ा नहीं सकता उसी प्रकार कुसंगति के अधिक प्रभाव हो जाने पर संत उस मूर्ख को नहीं सुधार सकता-
'फूलइ फरइ न बेत, जदपि सुधा बरसइ जलद ।
मूरूख हृदय न चेत, जो गुरू मिलहिं बिरंचि सम ।।
साधु असाधु सदन सुकसारी-
साधु असाधु सदन सुकसारी ।सुमरहि रामु देहिं गनिगारी
अर्थ-
साधु और असाधु दोनों घरों के पालतू तोता में भी संगति का अंतर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । साधु के सानिध्य का तोता राम-राम बोलता है जबकि असाधु के संगत वाला तोता गिन-गिन कर गालियां देता है ।
गुणार्थ-
संगति का प्रभाव वृहद और अवश्यसंभावी होता है । जिस प्रकार गिरगिट परमौसम और परिवेश का यह प्रभाव होता है उसके शरीर का रंग बदल जाता है ।
‘संत संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।’ संतो का सतसंग करना स्वर्ग दिला सकता है वहीं कामी का संग करना संसार रूपी भव सागर डूबो देती है ।
धूम कुसंगति कारिख होई-
धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु सोई
सोइ जल अलन अनिल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता
अर्थ-
धुँआ की संगति को परख कर देखिये वहीं धुँआ कुसंगति के प्रभाव से धूल-धूसरित होकर कालिख बन अपमानित होता है तो वही धुँआ सत्संगति के प्रभाव से स्याही बन पावन ग्रंथों में अंकित होकर सम्मानित होता है । वहीं धुऑं जल अग्नि और वायु के संपर्क में आकर मेघ बना जाता है और यही मेघ दुनिया के जीवनदाता कहलाता है ।
गुणार्थ-
संगति व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व और कर्म को प्रभावित कर सकता है । कुसंग के प्रभाव से जहां वह जगत के लिये भार होता है वहीं सुसंग के प्रभाव जगत के लिये मंगलकारी ।
ग्रह भेषज जल पवन पट-
ग्रह भेषज जल पवन पट, पाइ कुजोग सुजोग ।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ।।7।।
अर्थ-
ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र संगति के कारण भले और बुरे हो जाते हैं । ज्योतिषशास्त्र के अनुसार कुछ ग्रह शुभ और कुछ ग्रह अशुभ होते हैं किन्तु द्वादश भाव में विचरण करते हुये किसी स्थान शुभ परिणाम देते हैं तो किसी स्थान पर अशुभ परिणाम देते हैं । आयाुर्वेद के औषधि के लिये पथ्य-अपथ्य निर्धारित हैं । यदि पथ्य पर औषधि अच्छे परिणाम देते हैं जबकि अपथ्य से बुरे परिणाम हो सकते हैं । वायु सुंगंध के संपर्क में होने पर सुवासित और दुर्गंध के संपर्क में होने सडांध फैलाता है । इसी प्रकार शालिनता के संपर्क में वस्त्र पूज्य हो जाते हैं जबकि अश्लिलता के संपर्क से तृस्कृत होते हैं ।
गुणार्थ-
एक वस्तु के दूसरे वस्तु के संपर्क में आने पर या एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आने पर एक दूसरे के गुणों में सकारात्मक या नकारात्मक परिवर्तन अवश्यसंभावी हैं । अपने अंदर सकारात्मक परिवर्त करने लिये ऐसे परिवेश, ऐसे मित्रों या ऐसे सहचर्यो का चयन करना चाहिये जिससे अच्छे विचार जागृत हों, अच्छे कर्मो को करने की प्रेरणा मिले ।
पढ़-लिख कर मैंने क्या पाया ।
डिग्री ले खुद को भरमाया ।।
काम-धाम मुझको ना आया ।
केवल दर-दर भटका खाया ।।
फेल हुये थे जो सहपाठी ।
आज धनिक हैं धन की थाती ।
सेठ बने हैं बने चहेता ।
अनपढ़ भी है देखो नेता ।।
श्रम करने जिसको है आता ।
दुनिया केवल उसको भाता ।।
बचपन से मैं बस्ता ढोया ।
काम हुुुुनर मैं हाथ न बोया ।।
ढ़ूढ़ रहा हूँ कुछ काम मिले ।
दो पैसे से परिवार खिले ।।
पढ़ा-लिखा मैं तनिक अनाड़ी ।
घर में ना कुछ खेती-बाड़ी ।।
दुष्कर लागे जीवन मेरा ।
निर्धनता ने डाला डेरा ।।
दो पैसे अब मैं कैसे पाऊँ ।
पढ़ा-लिखा खुद को बतलाऊँ ।।
-रमेश चौहान
चीं-चीं चिड़िया चहकती, मुर्गा देता बाँग ।
शीतल पवन सुगंध बन, महकाती सर्वांग ।।
पुष्पकली पुष्पित हुई, निज पँखुडियाँ प्रसार ।
उदयाचल में रवि उदित, करता प्राण संचार ।।
जाग उठे हैं नींद से, सकल सृष्टि संसार ।
जागो जागो हे मनुज, बनों नहीं लाचार ।।
बाल समय यह दिवस का, अमृत रहा है बाँट ।
आँख खोल कर पान कर, भरकर अपनी माँट ।।
(माँट-मिट्टी का घड़ा)
वही अभागा है जगत, जो जागे ना प्रात ।
दिनकर दिन से कह रहा, रूग्ण वही रह जात ।।
सुबह सवेरे जागिए, जब जागे हैं भोर ।
समय अमृतवेला मानिए, जिसके लाभ न थोर ।।
जब पुरवाही बह रही, शीतल मंद सुगंध ।
निश्चित ही अनमोल है, रहिए ना मतिमंद ।।
दिनकर की पहली किरण, रखता तुझे निरोग ।
सूर्य दरश तो कीजिए, तज कर बिस्तर भोग ।।
दीर्घ आयु यह बांटता, काया रखे निरोग ।
जागो जागो मित्रवर, तज कर मन की छोभ ।।
-रमेश चौहान
आज अचानक
मैंने अपने अंत: पटल में झांक बैठा
देखकर चौक गया
काले-काले वह भी भयावह डरावने
दुर्गुण फूफकार रहे थे
मैं खुद को एक सामाजिक प्राणी समझता था
किंतु यहां मैंने पाया
समाज से मुझे कोई सरोकार ही नहीं
मैं परिवार का चाटुकार
केवल बीवी बच्चे में भुले बैठा
मां बाप को भी साथ नहीं दे पा रहा
बीवी बच्चों से प्यार
नहीं नहीं यह तो केवल स्वार्थ दिख रहा है
मेरे अंतस में
-रमेश चौहान
आयुष प्रभु धनवंतरी, हमें दीजिए स्वास्थ्य ।
आज जन्मदिन आपका, दिवस परम परमार्थ ।।
दिवस परम परमार्थ, पर्व यह धनतेरस का ।
असली धन स्वास्थ्य, दीजिए वर सेहत का ।।
धन से बड़ा "रमेश", स्वास्थ्य पावन पीयुष ।
आयुर्वेद का पर्व, आज बांटे हैं आयुष ।।
नरकचतुर्दशी की शुभकामना-
शक्ति-भक्ति प्रभु हमें दीजिये (सार छंद)-
पाप-पुण्य का लेखा-जोखा, प्रभुवर आप सरेखे ।
सुपथ-कुपथ पर कर्म करे जब, प्राणी प्राणी को देखे ।
शक्ति-भक्ति प्रभु हमें दीजिये, करें कर्म हम जगहित ।
प्राणी-प्राणी मानव-मानव, सबको समझें मनमित ।।
दीपावली की शुभकामना-
ज्ञान लौ दीप्त होकर (रूपमाला छंद)-
दीप की शुभ ज्योति पावन, पाप तम को मेट ।
अंधियारा को हरे है, ज्यों करे आखेट ।
ज्ञान लौ से दीप्त होकर, ही करे आलोक ।
आत्म आत्मा प्राण प्राणी, एक सम भूलोक ।।
दीप पर्व पावन, लगे सुहावन (त्रिभंगी छंद)-
दीप पर्व पावन, लगे सुहावन, तन मन में यह, खुशी भरे ।
दीपक तम हर्ता, आभा कर्ता, दीन दुखी के, ताप हरे ।।
जन-जन को भाये, मन हर्शाये, जगमग-जगमग, दीप करे ।
सुख नूतन लाये, तन-मन भाये, दीप पर्व जब, धरा भरे ।।
बोल रहे हैं दीयें (सार छंद)-
जलचर थलचर नभचर सारे,, शांति सुकुन से जीये ।
प्रेमभाव का आभा दमके, बोल रहे हैं दीये ।।
राग-द्वेश का घूप अंधेरा, अब ना टिकने पाये ।
हँसी-खुशी से लोग सभी अब, सबको गले लगाये ।।
भाईदूज की शुभकामना-
पावन पर्व भाईदूज (राधिका छंद)-
पावन पर्व भाईदूज, दुनिया रिझावे ।
भाई-बहनों का प्यार, जग को सिखावे ।।
दुखिया का दोनों हाथ, बहन का भ्राता ।
यह अति पावन संबंध, जग को सुहाता ।।
दीप ऐसे हम जलायें, जो सभी तम को हरे ।
पाप सारे दूर करके, पुण्य केवल मन भरे ।।
वक्ष उर निर्मल करे जो, सद्विचारी ही गढ़े ।
लीन कर मन ध्येय पथ पर, नित्य नव यश शिश मढ़े ।
कीजिये कुछ काज ऐसा, देश का अभिमान हो ।
अश्रु ना छलके किसी का, आज नव अभियान हो ।
सीख दीपक से सिखें हम, दर्द दुख को मेटना ।
मन पुनित आनंद भर कर, निज बुराई फेेेकना ।।
शुभ विचारी लोग होंवे, मानवी गुण से भरे ।
भद्र होवे हर सदन अब, मान महिला का करे ।
काम सबके हाथ में हो, भाग्य का उपकार हो ।
मद रहे ना मन किसी के, एकता संस्कार हो ।।
नाम होवे देश का अब, देशप्रेमी लोग हो ।
आपको अब सब खुशी दे, देश हित सब भोग हो ।
पर्व यह दीपावली का, हर्ष सबके मन भरे ।
कोप तज कर मोह तज कर, प्रीत सबसे सब करे
दोहे-
नाना खुशी बरसावे, जगमग करते दीप ।
दीप पर्व की कामना, हर्षित हो मन मीत ।।
अंतर मन उजास भरे, जगमग करते दीप ।
जीवन में सुख शांति दे, दीप पर्व मन मीत ।।