विज्ञान
परिचय-
प्रकृति को जानने समझने की जिज्ञासा प्रकति निर्माण के समान्तर चल रही है । अर्थात जब से प्रकृति का अस्तित्व है तब से ही उसे जानने का मानव मन में जिज्ञासा है । यह जिज्ञासा आज उतनी ही बलवती है, जितना कल तक थी । जिज्ञासा सदैव असंतृप्त होती है । क्यों कैसे जैसे प्रश्न सदैव मानव मस्तिक में चलता रहता है । इस प्रश्न का उत्तर कोई दूसरे से सुन कर शांत हो जाते हैं तो कोई उस उत्तर को धरातल में उतारना चाहता है । अर्थात करके देखना चाहता, इसी जिज्ञासा से जो जानकारी प्राप्त होती है, वही विज्ञान है । विज्ञान कुछ नही केवल जानकारियों का क्रमबद्ध सुव्यवस्थित होना है, केवल ज्ञान का भण्ड़ार होना नही । गढ़े हुये धन के समान संचित ज्ञान भी व्यर्थ है, इसकी सार्थकता इसके चलायमान होने में है ।
प्रकृति के सार्वभौमिक नियमों को क्यों? और कैसे? जैसे प्रश्नों में विभक्त करके विश्लेषण करने की प्रक्रिया से प्राप्त होने वाले तत्थों या आकड़ों के समूह को विशिष्ट ज्ञान या संक्षिप्त में विज्ञान कहते हैं।
दुनियो के विशिष्ठ ज्ञानों के समूह को ही विज्ञान कहा जाता है ।
आईये प्राकृति के किसी सार्वभौमिक नियम का विश्लेषण करके जाने-
प्रकृति का सार्वभौमिक नियम-धूप में गीले कपड़े सूख जाते हैं। क्यों? और कैसे?’
विश्लेषण- सूरज की किरणों में कई तरह के अवरक्त विकिरण होते हैं। जो तरंग के रूप में हम तक पहुंचते हैं। इन अवरक्त विकिरणों में बहुत अधिक ऊर्जा होती है। ये ऊर्जा कपड़े में मौजूद पानी के अणुओं द्वारा सोख ली जाती है। जिसकी वजह से वो कपड़े की सतह को छोड़कर वायुमण्डल में चले जाते हैं। पानी के सारे कण जब कपड़े की सतह को छोड़ देते हैं तो कपड़ा सूख जाता है।
विशिष्ट ज्ञान या विज्ञान- अणु अपनी ऊर्जा स्तर के आधार पर अपनी स्थिती में बदलाव कर लेते हैं तथा एक नई संरचना धारण कर लेते हैं।
जैसे-
- लोहे के अणुओं को बहुत अधिक ऊर्जा दे दी जाय तो वो पिघल कर द्रव में बदल जाते हैं।
- मिट्टी की ईटों को बहुत अधिक ऊर्जा देने पर वो पहले से ज्यादा ठोस हो जाता हैं।
- पानी के अणुओं की ऊर्जा अवशोषित करने पर वो जमकर बर्फ में बदल जाते हैं।
सिद्धांत क्या है ?
एक सिद्धांत एक वैज्ञानिक आधार, मजबूत सबूत और तार्किक तर्क पर सुझाव के रूप में परिभाषित किया जाता है। एक सिद्धांत को सिद्ध नहीं जाता, लेकिन एक वैज्ञानिक मुद्दे को एक सत्य प्रतीत होने वाला स्पष्टीकरण होने का विश्वास होता है।
वैज्ञानिक विधि-
- क्रमबद्धप्रेक्षण
- परिकल्पना निर्माण
- परिकल्पना का परीक्षण
- सिद्धांत कथन
दैनिक जीवन में विज्ञान-
जीवन के हर क्षेत्र उपयोगी प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा तकनीक को जानने के लिये पुरातत्व और प्राचीन साहित्य का सहारा लेना पडता है। प्राचीन भारत का साहित्य अत्यन्त विपुल एवं विविधतासम्पन्न है। इसमें धर्म, दर्शन, भाषा, व्याकरण आदि के अतिरिक्त गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, रसायन, धातुकर्म, सैन्य विज्ञान आदि भी वर्ण्यविषय रहे हैं।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में प्राचीन भारत के कुछ योगदान निम्नलिखित हैं-
हमारे देश के स्वर्णिम इतिहास जब हमारा भारत विश्व गुरू हआ करता था, उस प्राचीन काल में बौधायन, चरक, कौमरभृत्य, सुश्रुत, आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, वाग्भट, नागार्जुन एवं भास्कराचार्य जैसे विश्वविख्यात वैज्ञानिक हुए । जब पश्चिमी वैज्ञानिक चिंतन ने इस देश की धरती पर पुनः कदम रखा, तो हमारे देश की सोई हुई मेधा जाग उठी और देश को जगदीश चंद्र बसु, श्रीनिवास रामानुजन, चंद्रशेखर वेंकट रामन, सत्येन्द्र नाथ बसु आदि जैसे महान वैज्ञानिक प्राप्त हुए, जिन्होंने असुविधाओं से लड़कर अपनी खोजीप्रवृत्ति का विकास किया और एक बार फिर सारी दुनिया में भारत का झण्डा लहराया ।
प्राचीन भारत में विज्ञान-
- गणित – वैदिक साहित्य शून्य के कांसेप्ट, बीजगणित की तकनीकों तथा कलन-पद्धति, वर्गमूल, घनमूल के कांसेप्ट से भरा हुआ है।
- खगोलविज्ञान – ऋग्वेद (2000 ईसापूर्व) में खगोलविज्ञान का उल्लेख है।
- भौतिकी – ६०० ईसापूर्व के भारतीय दार्शनिक ने परमाणु एवं आपेक्षिकता के सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख किया है।
- रसायन विज्ञान – इत्र का आसवन, गन्दहयुक्त द्रव, वर्ण एवं रंजकों (वर्णक एवं रंजक) का निर्माण, शर्करा का निर्माण
- आयुर्विज्ञान एवं शल्यकर्म – लगभग ८०० ईसापूर्व भारत में चिकित्सा एवं शल्यकर्म पर पहला ग्रन्थ का निर्माण हुआ था।
- ललित कला – वेदों का पाठ किया जाता था जो सस्वर एवं शुद्ध होना आवश्यक था। इसके फलस्वरूप वैदिक काल में ही ध्वनि एवं ध्वनिकी का सूक्ष्म अध्ययन आरम्भ हुआ।
- यांत्रिक एवं उत्पादन प्रौद्योगिकी – ग्रीक इतिहासकारों ने लिखा है कि चौथी शताब्दी ईसापूर्व में भारत में कुछ धातुओं का प्रगलन (स्मेल्टिंग) की जाती थी।
- सिविल इंजीनियरी एवं वास्तुशास्त्र – मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त नगरीय सभयता उस समय में उन्नत सिविल इंजीनियरी एवं आर्किटेक्चर के अस्तित्व को प्रमाणित करती है।
आधुनिक भारत का विज्ञान में योगदान-
- होमा जहाँगीर भाभा – भाभा को भारतीय परमाणु का जनक माना जाता है इन्होने ही मुम्बई में भाभा परमाणु शोध संस्थान की स्थापना की थी
- विक्रम साराभाई – भाभा के बाद वे परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष बने वे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान राष्ट्रीय समिति के प्रथम अघ्यक्ष थे थुम्बा में स्थित इक्वेटोरियल रॉकेट प्रक्षेपण केन्द्र के वे मुख्य सूत्रधार थे
- एस . एस . भटनागर – इन्हें विज्ञानं प्रशासक के रूप में अपने शानदार कार्य के लिये जाना जाता है इन्होंने देश में वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की स्थापना की थी
- सतीश धवन – सतीश धवन को विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा, सन 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया थाध्वनि के तेज रफ्तार (सुपरसोनिक) विंड टनेल के विकास में इनका प्रयास निर्देशक रहा है
- जगदीश चंद्र बसु- ये भारत के पहले वैज्ञानिक शोधकर्त्ता थे 1917 में जगदीश चंद्र बोस को ष्नाइटष् की उपाधि प्रदान की गई तथा शीघ्र ही भौतिक तथा जीव विज्ञान के लिए श्रॉयल सोसायटी लंदनश् के फैलो चुन लिए गए इन्होंने ही बताया कि पौंधों में जीवन होता है
- चंद्रशेखर वेंकट रमन – इन्होने स्पेक्ट्रम से संबंधित रमन प्रभाव का आविष्कार किया था जिसके कारण इन्हें 1930 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था
- बीरबल साहनी -बीरबल साहनी अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पुरावनस्पति वैज्ञानिक थे इन्हें भारत का सर्व श्रेष्ठ पेलियो-जियोबॉटनिस्ट माना जाता है
- सुब्रमण्यम चंद्रशेखर – 1983 में तारों पर की गयी अपनी खोज के लिये इन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था
- हरगोविंद खुराना – इन्होने जीन की संश्लेषण किया जिसके लिए इन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था
- ए.पी.जे. अब्दुल कलाम -जिन्हें मिसाइल मैन और जनता के राष्ट्रपति के नाम से जाना जाता है इन्होंने अग्नि एवं पृथ्वी जैसे प्रक्षेपास्त्रों को स्वदेशी तकनीक से बनाया था भारत सरकार द्वारा उन्हें 1981 में पद्म भूषण और 1990 में पद्म विभूषण का सम्मान प्रदान किया गया ।
वर्तमान में भारत उन गिने-चुने देशों में शामिल हो गया है, जिन्होंने 1973 से ही नए तथा पुनरोपयोगी ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करने के लिए अनुसंधान और विकास कार्य आरंभ कर दिए थे। परन्तु, एक स्थायी ऊर्जा आधार के निर्माण में पुनरोपयोगी ऊर्जा या गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग के उत्तरोत्तर बढ़ते महत्व को तेल संकट के तत्काल बाद 1970 के दशक के आरंभ में पहचाना जा सका।